गोद

  “गुड मॉर्निंग आंटी अंकल !, आज की चाय हुई कि नहीं? आज चाय बनाने की किसकी बारी थी?” सुहास ने मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए, चुहल करते हुए अपने पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग दम्पति मिस्टर और मिसेज श्रीनिवास से पूछा तो आंटी किसी छोटे बच्चे के माफिक मुँह फुलाए ही बैठी रहीं ।अंकल अपनी पत्नी से थोड़ा पीछे हटकर इशारे से सुहास को कुछ समझाने की नाकाम कोशिश कर ही रहे थे कि आंटी ने उलाहना देते हुए कहा-” बेटा! तेरे अंकल बहुत चालाक हैं कहने लगे,सुबह-सुबह तुम्हारे हाथ की चाय पीने का मज़ा ही कुछ और है,मन बिल्कुल तरोताजा हो जाता है और मैं ठहरी बुद्धू— तुम्हारे अंकल की चाल में हर दिन फंस जाती हूँ और चाय मैं ही बनाती हूँ ।” आंटी किसी मासूम बच्चे की तरह बोल रही थीं।उनके होठों पर बेशक शिकायत थी किन्तु पति को संतुष्ट करने का खुबसूरत अभिमान उनके चेहरे की कान्ति को दोगुना कर रहा था।

पत्नी की बात सुनकर श्रीनिवास जी ठठा  कर हंस पड़े थे और सुहास दोनों की मीठी नोंकझोंक देखते हुए मुस्कुराकर अपने घर की ओर बढ़ गया। किन्तु सुहास ने एक नहीं कई बार अंकल के ऐसे ठहाकों के पीछे की चीखती खामोशी व एकाकीपन के दर्द को अपने अंदर तक महसूस किया था क्योंकि इन खामोशियों से तो उसका जन्म से रिश्ता था । 

एक छोटा बच्चा डर कर, सहम कर माँ के आँचल में छुप कर खुद को सुरक्षित महसूस करता है—,है न! जैसे दुनिया जहान की इससे सुरक्षित जगह और कोई है ही नहीं। बचपन के ऐसे तमाम पलों में सुहास अकेले ही अपने डर से जूझता रहा था,रात के कई घने, स्याह अन्धेरे उसने बिस्तर के एक कोने में दुबक कर बिताए थे—न माँ का ममता भरा आँचल था न पिता के मजबूत हाथों का संबल—कुछ भी तो नहीं था उसके पास। माँ के सीने से लिपट कर सोने और पिता से खिलौनों  की ज़िद करने की कसक उसके नन्हें हृदय में दफन होती चली गई थी।

 होश संभाला तो खुद को एक ऐसी जगह पाया जहाँ उस जैसे कई मासूम बच्चे रहते थे । परिस्थितियों ने उसे अपनी उम्र से कहीं ज्यादे बड़ा बना दिया था। वो हर बच्चे के चेहरे की उदास मुस्कान को पढ़ लेता था,किसी संकरे कोने में छुप कर सिसकी लेते बच्चे का चहेता भईया बन जाता था। हर बच्चे के लिए उसके नन्हें मन में ढेर सारी ममता थी,स्नेह और फिक्र थी । उसके अंदर तो जैसे स्नेह का समुद्र उफनता था। वो नन्हा सा जीव सबका अभिभावक बन बैठा था । उस निकेतन की अध्यक्षा उस पर बेटे जैसा स्नेह लुटाती थीं। परिस्थितियों ने सुहास को केवल जिम्मेदार ही नहीं बनाया था बल्कि पढ़ाई-लिखाई और पेंटिंग के क्षेत्र में भी उसे अव्वल बनाया था ।

“सुहास! बेटा आज तुम अपना टिफिन मत बनाना,मैंने बना दिया है।” आंटी अपने छोटे से खुबसूरत बागीचे से मुझे आवाज़ दे रही थीं।अतीत के कई पन्ने अब भी बुरी तरह फ़ड़फड़ा रहे थे । मन में खुली अतीत की किताब को मैंने वहीं बन्द कर दिया और “जी,आंटी!” कहते हुए ऑफिस के लिए तैयार होने लगा था। 

आंटी अक्सर मेरे लिए टिफिन बना देती थीं और फिर इसी तरह से बगीचे में आकर मुझे टिफिन न बनाने की हिदायत देती थीं। ऑफिस से लौटकर मैं बहुत देर तक आंटी,अंकल के पास ही बैठा रहता। मैंने कई बार उनकी आंखों की कोर नम होते देखी थी, कई बार अपने बच्चों की फोटो साफ करते-करते किन्हीं सुखद यादों में खोते देखा था । बच्चों की बात करते-करते उनकी आवाज का भरभरा जाना भी मैंने महसूस किया था। दो बेटे थे उनके, दोनों का अपना परिवार था और दोनों अपनी व्यस्तता में पूरी तरह से व्यस्त रहते थे । कभी-कभार फोन कर लेते, नहीं तो वह भी नहीं।

 मैंने देखा था हर तीज त्यौहार में आंटी बड़ी शिद्दत से घर की साफ-सफाई करतीं, बड़े चाव से घर को सजाती,अपने बच्चों की पसंद की बहुत सारी डिशेस बनाती लेकिन— खाते वक्त एक निवाला भी उनके मुंह में न जाता आंसुओं से ही पेट भर लेती थीं। आज ऑफिस से लौटते हुए मैंने मन में ठान लिया था कि मैं पक्के तौर से आंटी अंकल से अपने मन की बात कहूंगा जो पिछले कई महीनों से उनसे कहता आ रहा हूँ और जिसे किसी न किसी बहाने या कभी बात को टाल कर वे मेरी बातों को अनसुना करते आ रहे थे । 

मुझे उनके साथ रहकर, उनकी हंसी ठिठोली का हिस्सा बन कर, उनके साथ समय बिता कर बहुत सुकून मिलता था, बहुत खुशी मिलती थी— शायद मेरे मन के किसी कोने में दबी हुई मां का स्नेह पाने की लालसा आंटी अंकल के घर आकर तृप्त होती थी । आंटी अंकल भी मुझे दुलारने में, मेरे निराशा के क्षणों में मुझे हौसला बधाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे पर—पर— मैं जिस बात के लिए उन्हें मनाने की कोशिश कर रहा था उसको—उसको वे अनसुना क्यों कर देते थे?, अपनी खामोशी से मेरे प्रस्ताव पर अपने इंकार की मुहर क्यों लगाते थे—? क्यों? आखिर क्यों? 

इस सवाल का जवाब पिछले कई महीनों से सुहास ढूंढ रहा था।

कई बार उसने गौर किया था कि कभी ऑफिस से किसी कारणवश उसे देर हो जाती तो आंटी अपने बगीचे में बेचैनी से टहलती रहतीं और उसे देखते ही हड़बड़ा कर पूछ बैठतीं-” बेटा क्या हुआ? आज इतनी देर क्यों लगा दी? फोन भी नहीं किया कि तू देर से घर आएगा, पता है मन कितना घबरा रहा था।” कहते हुए आंटी स्नेह से उसका गाल सहलाने लगती और सुहास—सुहास तो जैसे स्वर्गिक आनंद में गहरे तक डूब जाता,आँखें ममता का स्वाद चखकर मुंद जाती ।आह ! कितना आह्लादित करने वाला था उस स्पर्श का सुख— जैसे रेगिस्तान में चलते हुए किसी मुसाफिर को अचानक शीतल, ठंढी ठौर मिल गई हो—आसरा मिल गया हो।

एक दिन जब उसने अपने निश्चय और मन की उथल-पुथल को अपने मित्र से सांझा किया तो मित्र की बात से उसका हौसला फिर पस्त हो गया-” ओय! तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है ? तेरे दिमाग में ये खयाल आया भी कैसे—? तेरा करियर है—हज़ार ज़िम्मेदारियां हैं—आज नहीं तो कल शादी तो करेगा न—?तब—?क्या सबके साथ ठीक से निभ पायेगी? कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में तुझे अपने फैसले पर पछतावा हो—?तू समझ रहा है न! मैं क्या कह रहा हूँ—?

सुहास ने मित्र की बात तो सुन ली लेकिन उसके मन का एक कोना जो सालों से ममता के लिए तरस रहा था,आँचल की छाँव तले वह जिस सुकून को पाना चाह रहा था उसकी आस पर फिर से कई सारे सवालिया चिन्ह तैरने लगे थे किन्तु ममता की तड़प ऐसी थी कि उसके सामने उसे हर समस्या छोटी लगती और सबसे बड़ी बात— उसे खुद पर भरोसा था— अपने स्नेह पर भरोसा था।

दीपावली करीब थी । आंटी फिर से घर के कोने- कोने की सफाई में जुटी हुई थीं जब कभी सुहास को समय मिलता वह भी उनका हाथ बटा देता था,बाज़ार से रोशनियों वाली झालर लाना,खील,बताशे,चीनी के हाथी,घोड़े की खरीदारी करना और—और इस बार उसने अपनी पसंद से आंटी के लिए हल्के पीले और गुलाबी रंग की सिल्क की साड़ी और अंकल के लिए खादी सिल्क का कुर्ता पैजामा खरीद लिया था । दीपावली के दिन जब वह अपने घर के साथ-साथ आंटी अंकल के घर की छत पर दीया जला रहा होगा तभी वह अपने मन की बात फिर से पूछेगा— इस बार कुछ ज्यादा अधिकार से— हाँ—अधिकार से— ताकि वे ‘ना’ कर ही न पायें। अपनी योजना पर सुहास मन ही मन खुश हो रहा था।

दीपावली की सारी तैयारियां हो चुकी थीं आंटी के बच्चे कभी तीज त्योहार पर भी घर न आते लेकिन वे अपने बच्चों की पसंद के साथ-साथ सुहास की पसंद के भी कई व्यंजन बनाती थीं। इस बार भी उन्होंने दहीबड़े,बेसन के लड्डू,खीर वगैरह बनाये, बस दीये जलाने की बारी थी जिसके लिए वह सुहास की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रही थीं । घड़ी की टिक-टिक के साथ मिसेज श्रीनिवास के हृदय की बेचैन धड़कने भी चिंता से शोर मचाने लगी थीं। 

“सुनो जी! एक बार फिर फ़ोन लगा कर देखो न ,पूछो कहाँ है अभी तक?,आया क्यों नहीं ?” आंटी का स्वर हौले से काँप गया था । “लगा तो रहा हूँ फ़ोन, उठाये तब तो।” श्रीनिवास जी की आवाज में एक थके, हारे हुए व्यक्ति की निराशा की स्पष्ट  गूंज थी ।

दोनों बागीचे में बेचैनी से टहलने लगे थे,एक-एक पल उन पर भारी गुज़र रहा था।

“हम लोगों ने सुहास के साथ अच्छा नहीं किया शशि ,कितने दिनों से और कितनी उम्मीदों से वो हमसे गुहार लगा रहा है और हम—खामोशी से इन्कार किये जा रहे हैं। एक तरफ़ हमारे बच्चे हैं जो हमारी कोख से जन्मे हैं किन्तु उन्हें हमारी परवाह तक नहीं है और एक सुहास है जो हमें अपने साथ—श्रीनिवास जी की बात हवा में अधूरी ही रह गई थी क्योंकि उन्होंने सुहास को गाड़ी से उतरते हुए देख लिया था जिसके सिर पर पट्टी बंधी हुई थी। 

सुहास अपने घर का ताला खोलकर सोफे पर पीछे टेक लगाकर, आंख मूंद कर बैठ गया था। आंटी अंकल दोनों घबराये हुए पूछे जा रहे थे-” बेटा! यह क्या हुआ? कैसे हुआ? तुमने फोन क्यों नहीं किया?” एक साथ बहुत सारे अनुत्तरित सवाल— 

मैं ठीक हूं आंटी, बस पता नहीं कैसे ऑफिस में चक्कर सा आ गया था और फिर मुझे कुछ याद नहीं— सुहास ने आंखें मूंदे हुए ही हौले से जवाब दिया। मिसेज श्रीनिवास यह कहते हुए उठ गई कि मैं अभी तुम्हारे लिए गर्म कॉफी बना कर लाती हूं किंतु सुहास ने आंटी का हाथ थाम लिया ,अपने हाथ में आंटी का हाथ लेकर सहलाते हुए, आंखों में उम्मीद भरकर उनकी तरफ देखने लगा-” आंटी! क्या आज भी मुझे दीपावली का उपहार नहीं मिलेगा—?” आंटी की नजरें झुक गई थीं उन्होंने अपने पति की तरफ देखा, कुछ क्षण दोनों मौन रहे—।

“बेटा! तुम हम दोनों को बहुत स्नेह करते हो,बहुत खयाल भी रखते हो हमारा लेकिन—लेकिन हम हर बार तुम्हारे प्यार को अस्वीकार करते रहे ,तुम्हें दुख पहुंचाते रहे —बुरा मत मानना बेटा लेकिन एक बार अपनों की उपेक्षा,अपमान ये बूढ़ी आँखें सह चुकी हैं अब इनमें और उपेक्षा—और अपमान सहने की ताकत नहीं है बस—और हम तुम्हारे प्यार को खोना भी नहीं चाहते थे—तुम समझ रहे हो न बेटा—?

“सुनो जी! मैं अपने बेटे को छोड़कर कहीं जाने वाली नहीं हूं जाकर मेरे कपड़े-लत्ते लेकर आओ।  मैं अपने बेटे के साथ आज से यही रहूंगी, तुम्हारी तुम सोचो। आंटी ने बड़े ही स्नेह से सुहास के सिर पर हाथ फेरते हुए और पति की तरफ थोड़े रूआब से देखते हुए जब कहा तो सुहास की आंखों में खुशी के असंख्य दीप झिलमिला उठे थे। उसने आंटी को गले से लगा लिया था। बचपन से ही वह मां के ऐसे आलिंगन के लिए तरसता रहा था। वर्षों बाद उसे दीपावली का ऐसा सुखद उपहार मिला था जिसे पाने की उम्मीद वह लगभग खो चुका  था।

हां! यही तो वह बात थी जिसे पिछले कई महीनों से वह मिस्टर और मिसेज श्रीनिवास के सामने रखता आया था। वह चाहता था कि कानूनी तौर पर उन्हें मां पापा के रूप में गोद ले सके। क्या कहा—? मां पापा को— और वह भी गोद— हां— क्यों नहीं? जब माता-पिता एक बच्चे को गोद ले सकते हैं तो क्या कोई बच्चा मां पिता को गोद नहीं ले सकता—? आज सुहास का घर सिर्फ दीपों की रोशनी से ही नहीं बल्कि श्रीनिवास दम्पति अरे!!!अरे!!!सॉरी उसके माँ पापा के स्नेह के दीप से भी झिलमिला उठा था।

डॉ रत्ना मानिक 

टेल्को, जमशेदपुर