मैं नदी हूँ
एक पल में देखती कितनी
सदी हूँ,
मैं नदी हूँ
वेदनाओं से भरे मेरे सहारे
कहाँ मिलते हैं मेरे दोनों किनारे,
पापियों के बोझ से इतना
लदी हूँ,
मैं नदी हूँ
सभ्यताओं संग बही वह छोर हूँ,
पर्वतों की मैं अटूट निहोर हूँ
मरघटों की सतत नेकी और वदी हूँ
मैं नदी हूँ
मैं सतत हूँ और अविरल
मैं कहाँ कब सूखती हूँ,
मा निषाद कहते ऋषी की
शाप-वाणी देखती हूँ
तिर्यक पथ से होकर बहती
हाँ? सधी हूँ,
मैं नदी हूँ !
*दया शंकर पाण्डेय*