“खारा हुआ समन्दर कैसे?”

आज समझ में आया मुझको,खारा हुआ समन्दर कैसे?

किसी नदी की अभिलाषा में,रोता अन्दर अन्दर जैसे।

दूर हिमालय की गोदी में, कोई नदी मचलती होगी।

प्रेम विरह में दूरी उसकी,सागर को भी खलती होगी।

अगनित बाधाओं से लड़ती,वो सागर तक कैसे आए।

धीर,वीर,गम्भीर सिन्धु,अपनी मर्यादाएँ तोड़ नहीं पाए।

 सागर की पीड़ा से परिचित, व्याकुल और व्यथित होगी।

सागर से दूरी,दुःख सहना,किंचित यही नियति होगी।

 और नदी के संघर्षो की,दुःख की कई कथाएँ होगीं।

आँसूं बनकर पिघल रहीं, सागर की अकथ व्यथाएँ होगीं।

मर्यादाओं में बँधें हुए हैं,सागर और सरिता दोनो ही।

पीड़ा व्यक्त नहीं कर सकते,कवि और कविता दोनो ही।

अनुबन्धों प्रतिबन्धों का संघर्ष निरन्तर चलता होगा।

नदी उधर बेकल होगी,और सिन्धु इधर जलता होगा।

अपने मीठे जल से  सागर का अभिषेक उसे करना है।

आलिंगन देकर सरिता को सागर का रीतापन भरना है।

हैं अटूट सम्बन्धों से गुम्फित,दोनो को ईश्वर का संबल है।

सागर हित सरिता मीठी है,सरिता हित खारा सागर जल है।

…✍️रमाकान्त त्रिपाठी”रमन”

        कानपुर देहात,उत्तरप्रदेश।

        मो.9450346879