जबसे मिलकर आई हूँ।
कल-कल करती ध्वनि धारा की,
साथ हृदय में लाई हूँ।
भजनों के मधुरिम शब्दों से,
गूँज रहे थे तट सारे।
ऋषि-मुनियों के आभामय मुख,
लगा रहे थे जयकारे।
हर-हर गंगे,जय माँ गंगे,
मैं भी रट कर आई हूँ।
हरिद्वार में माँ गंगा से,
जबसे मिलकर आई हूँ।
घंटानाद आरती के स्वर,
अद्भुत शक्ति जगाते हैं।
सुप्त पड़ी मानव तन को भी,
ऊर्जस्वित कर जाते हैं।
तिमिराच्छादित मानस में यूँ,
नव प्रकाश भर लाई हूँ।
हरिद्वार में माँ गंगा से,
जबसे मिलकर आई हूँ।
पतित पावनी पाप नाशिनी,
मोक्ष दायिनी गंगा माँ।
जिसको अपने गले लगातीं,
हो जाता वह चंगा माँ।
सुधियों की सीढ़ी पर चढ़ मैं,
नैन मूँद हरषाई हूँ।
हरिद्वार में माँ गंगा से,
जबसे मिलकर आई हूँ।
प्रतिभा गुप्ता
भिलावां,आलमबाग
लखनऊ