पाखी को होश आ गया था लेकिन अब भी उसका सिर बुरी तरह से घूम रहा था। उसने करवट लेने की कोशिश की तो लगा कि शरीर में जान ही नहीं है,सांसें ऐसे चलने लगी मानों मीलों पैदल चल कर आ रही हो । नर्स ने केबिन में आते ही उसे आराम से लेटे रहने की हिदायत दी-” पाखी! अभी तुमको पूरी तरह से आराम मांगता है मैन , बहुत कमज़ोर हो गया है तुम और अगली बार अबॉर्शन के लिए तुमको सोचना भी नहीं है ,समझा तुम—?एक,दो नहीं यह तीसरी बार है । यदि अभी तुमको बच्चा नहीं मांगता तो बाबा हसबैंड को बोलने का न!” क्रिश्चियन नर्स ने स्नेह से उसके सिर को सहलाते हुए कहा था।
अगली बार— अबॉर्शन? मैं—मैं बच्चा नहीं चाहती—?—मैं? मन ही मन बुदबुदाते हुए पाखी की आँखों की कोर नम होती चली गई थी ।
पवन की हर पल की फिक्र,छाया की तरह उसके साथ लगे रहना,एक घड़ी के लिए भी उसको अकेला न छोड़ना जिसे वो नादानी में प्यार समझ बैठी थी वो तो—सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी भयानक सनक थी,एक अजीब सा पागलपन,उसके व्यक्तित्व का गहन अन्धकार से भरा एक दूसरा पहलू— जिससे वो पूरी तरह से अंजान थी।
ठंडी हवा के तेज़ झोंके ने हॉस्पिटल के उस केबिन को ठंड से सिहरा दिया था । मेरी कुछ यादें बर्फ़ की सिहरन सी पैदा करती हुई आवारा हवाओं के साथ मेरे ज़हन में उतरती चली गई थीं ।
ये क्या कर दिया तुमने—? कितने इम्पोर्टेन्ट पेपर थे ये—? तम्हें पता हैं—? तुम्हें कोई भी काम ठीक से करने आता है कि नहीं—? कॉफी का मग रखते हुए पता नहीं कैसे मेरे हाथ से कॉफी छलक कर पेपर पर गिर गई थी और पवन तेज़ आवाज़ में गरजते हुए मुझ पर चीख़ पड़ा था,आँखों में क्रोध की लाली उतर आई थी जब चीखने पर भी पवन का गुस्सा शांत नहीं हुआ तो उसने न आव देखा न ताव उसी गर्म कॉफी में मेरी उंगलियों को डाल दिया था तेज़ जलन से मेरे मुँह से चीख निकल पड़ी और दर्द आँखों से बहने लगा था ।
गुस्सा शांत होने पर वह ऐसे बर्ताव करता जैसे कि यह वह पवन है ही नहीं । सैकड़ों बार मुझ से माफी मांगता,अपनी गलती पर शर्मिंदा होता,आइंदा इस तरह की गलती न करने की कसमें भी खाता लेकिन फिर—वही हैवानियत— और क्रोध की ज्वाला शांत होने पर फिर मान,मनुहार का सिलसिला— कभी नाश्ते में देर होने पर, कभी अकेले बाज़ार जाने पर, किसी फ्रेंड के घर जाने पर,उसके किसी दोस्त से हँस कर बात कर लेने पर उसका यही रूप सामने आ जाता और मैं हर बार उसकी सजा से सर से पाँव तक काँप उठती थी, कहीं हाथ पर गर्म सिगरेट धर दिये जाने का निशान तो कहीं आँख के नीचे की चोट का स्याह निशान—शादी के बाद पवन की तरफ़ से जितने तोहफे नहीं मिले थे उतने मेरे शरीर पर ये निशान थे।हर निशान के साथ जुड़ी दर्द की एक नई दास्तान थी।
“सुनो!अब हम दो से तीन होने वाले हैं अब तुम्हारी कोई मनमानी मुझ पर नहीं चलेगी,समझे!” एक शाम मैंने पवन से हल्की शरारत करते हुए कहा तो उसकी आँखों में वहशीपन की वही काली छाया देखकर मैं बुरी तरह घबरा उठी थी ।
“कोई ज़रूरत नहीं दो से तीन होने की,हम दो ही काफी हैं एक दूसरे के लिए—वो बढ़ा हुआ पेट,भद्दा—,बेडौल शरीर,रात-दिन की चिल्ल -पो—नहीं— बिल्कुल नहीं,इतना अच्छा शरीर यूँ खराब करने के लिए नहीं है,समझी!—और हाँ! मुझे इस बाबत कोई बहस नहीं चाहिये।” पवन ने हुंकारते हुए अपना फैसला सुना दिया था। मेरे रोने, गिड़गिड़ाने,प्यार की दुहाई देने के बावजूद मुझसे मेरे अंश को उसने बेरहमी से अलग करवा दिया था—एक बार—दो बार—और अब ती–स–री–बार—भी ।
“पाखी! लो अपनी दवा खा लो।” नर्स की आवाज़ से पाखी वर्तमान में लौट आई थी, कड़वी यादों के खारेपन से तकिये का लिहाफ़ पूरी तरह गीला हो चुका था। चेहरा कमजोरी से पीला पड़ गया था। केबिन के आईने में खुद को देखा तो लगा महीनों से मैं बीमार पड़ी हूं । नर्स ने बताया कि जब मैं बेहोश थी तभी पवन मुझे देखने आया था शाम को फिर आने की बात कह गया है।
शाम को वो आयेगा—! मैं मन ही मन बुदबुदा उठी, मस्तिष्क में विचारों का ज़ोरदार अन्धड़ चल रहा था,उधर दिल और दिमाग अलग ही तर्क-कुतर्क में उलझे हुए थे। मन के झंझावात ने मुझे थका दिया था,नर्स दवा देकर जा चुकी थी । बीमारों के तीमारदारों की आवाजाही तकरीबन बन्द हो चुकी थी और अब मुझे एक निर्णय पर पहुंचना था—हाँ—निर्णय। मैं बेड पर बैठे-बैठे ही बेचैनी से हाथों की उंगलियों को चटकाने लगी थी कि तभी नज़र दीवार पर टंगी मदर टेरेसा की ममतामयी तस्वीर पर ठहर गई वही कुछ दूरी पर अहिंसा के पुजारी व गुरुदेव की भी तस्वीरें थीं ।
‘वैष्णव जन ते तेने कहिए जे पीर’, जोदी तोर डाक शुने केऊ—‘ जैसे प्रेरक गीत के बोल कानों में गूंजने लगे थे। मैंने धीरे-धीरे अपना सामान उठाया, उन प्रेरक शक्तियों को नमन कर मैं एक अंजान रास्ते पर बढ़ने लगी जिसकी मंजिल काल के पन्नों में फिलहाल कहीं दबी हुई थी,लेकिन वहाँ दर्द और खौफ़ का कोई निशान नहीं था।
डॉ रत्ना मानिक
टेल्को, जमशेदपुर