गाँव का कुआं

अब तो मृतप्राय हो चला

जो सदियों तक जीता था।

गाँव का वो प्यारा सा कुआं

जहाँ हर कोई पानी पीता था।

पैदल चलने वाले राही 

देख कुआं रुक जाते थे।

दस बीस हाथ रस्सी खींचे

फिर शीतल जल को पाते थे।

इसी कुएं पर पुरखे हमारे

सुबह चौपाल लगाते थे।

अपने जमाने के किस्से को

बैठे जन को बतलाते थे।

अब कुंए में न शीतल जल है

कूड़ा करकट है भरा हुआ।

कुछ में मिट्टी मुहाने तक है

लगता है कुआं अब मरा- मरा।

काश पुरखों की परम् निशानी

अपने रूप में आ जाए।

वर्षों से सूखे पड़े कुएं में 

फिरसे पानी आ जाए।

-सिद्धार्थ गोरखपुरी