स्वातमानं जानीहि

तू पुरुष है,

तुझ में कईयों की आस्था है,

आस है, विश्वास है,

अंधेरे को चीर ने वाला तेरा प्रकाश है।

तू पुरुष है,

महानता नहीं, 

स्थिरता तेरा आभूषण है। 

आभूषण? हां, आभूषण।

क्यूँ? ये क्या सिर्फ स्त्री का परिधान है?

तू पुरुष है,

तू ही बल, तू ही निर्बल,

तुझ में ही शक्ति, तू ही अशक्त।

तू ही नाशवंत, तू ही शाश्वत,

मर्यादा भी तू,

तेरे अस्तित्व का व्यास किन्तु अमर्यादित है।

तू पुरुष है,

तुझ पर लादे है समाज ने, 

कुछ कहे अनकहे भार।

होना पडता है तुझे सदैव उत्तरदायी, 

उठाने पडते है दायित्व समग्र।

बल नहीं तेरी बुद्धि पर है इन्हें विश्वास,

इसीलिए तुझसे बंधी है आस।

तू पुरुष है,

तू ही चाणक्य, तू ही सिद्दार्थ,

तू ही युद्ध, तू ही स्वयं बुद्ध।

मगर तू है भुला, राह भटका..

भुला की तू सर्वप्रथम है मनुष्य,

स्वयं की प्रति है तेरा दायित्व।

तू पुरुष है,

मगर उससे ऊपर तू एक आत्मा है,

तथापि ‘स्वातमानं जानीहि’ का प्रयत्न है।

अहं से ब्रह्म तेरी यात्रा है, 

तू ही पुरुष, तू ही परमात्मा है।

लेडी जिब्रान