जैसे के मेरी रग़ों में वो घुला सा है
अजनबी है लेकिन लगता मिला सा है
रुख़सत हो रहा है मग़र अनमना सा है
चलते हुए भी वो कुछ रुका सा है
सहते रहे हैं हम सारे तेरे सितम
और तू करम पे भी मेरे ख़फ़ा सा है
है तो मेरे वो दिल के बहुत क़रीब
रखता जाने क्यूँ कुछ फ़ासला सा है
शातिर रही हैं तन्हाइयां सदा
इनका मिजाज़ भी तेरी अदा सा है
उनको भुला दिया उनकी ही ख़ातिर
किसका तिलिस्म है जो मेरी वफ़ा सा है
तेज़ी से जाके फिर उसका हाथ थाम लूं
चलते हुए भी वो कुछ-कुछ रुका सा है
मिलने से कतराने का जो दावा कर रही हैं
आँखों के इस बयान में कुछ छुपा सा है
ज़ाकिर हुसैन “अमि”
अध्यक्ष-म.प्र.लेखक संघ
सनावद-मोब-8319000979