अस्तित्व

अपने किरदार को मैं निखारना चाहती हूँ 

जैसी भी हूँ  उसमें खुश रहना चाहती हू। 

ना पीठ पीछे किसी की बुराई  होती है मुझसे

ना मुँह पर किसी की चापलूसी करती हूँ ।

जींस पहन जमाने के साथ चलती भी हूँ  तो 

साड़ी पहन संस्कारों को भी बचाना जानती हूँ।

बेटी की बहन जैसी लगती हूँ, सुनना पंसद नहीं 

माँ हूँ, हमेशा माँ की मर्यादा में रहना चाहती हूँ।

बच्चों कोअपने  पास बैठा उपदेश देती हूँ तो

दोस्त बन, बिंदास उनके साथ जीना चाहती हूँ। 

बिंदिया छोटी-बड़ी सब फबे ना फबे मुझपे

मैं कानों की बाली में ही मस्त हो जाना चाहती हूँ। 

जीवन के हर मोड़ पर रंग हज़ारों मिलेंगे मगर

मैं खुद के ही रंग में रंग जीना चाहती हूँ। 

ना हराना है किसी को, ना जीतना है किसी से 

मैं अपने हर पल, हर लम्हें को जीना चाहती हूँ।

● रीना अग्रवाल, सोहेला (उड़ीसा)