आज
मेरी कविता
तमाम अमानवीयता के खिलाफ
खड़ी होना चाहती है
अखबारों और टी. वी. पर
मोटी-मोटी हेडलाइन में
दिखती हुई
बलात्कारी, आंतकवादी,
अपहरणकर्ता और हत्यारों को
देखते ही
अपनी कलम से
कभी न छूटने वाली स्याही
पोत देना चाहती है
ताकि-
दूर से ही पता चले
इनकी असलियत !
आज
मेरी कविता की
आत्मा काँप उठती है
जो लड़ रहे हैं
एक-एक निवाले के लिए
हर दिन
एक बड़ा-सा युद्ध
और
उनकी आँखो से होती हैं
ज़ख्मों की बरसात
और
मेरी कविता
इन सारे ज़ख्मों को
न्याय दिलाना
चाहती है!!
● अनुपमा कट्टेल , दीमापुर ( नागालैण्ड)