आजकल गालियां बेची-खरीदी जाती है। इसके लिए टीवी पर आकर एक खेल खेलना पड़ता है। खेल का नाम है- आइए! संविधान की हत्या करें! आइए! लोकतंत्र का गला घोटें! खेल का पहला दौर ये है कि आप अगले एक घंटे तक मुझे संविधान का हत्यारा साबित करते रहिए। लोकतंत्र का गला घोंटने वाला साबित कर दीजिए। आप चीखते रहिए, चिल्लाते रहिए। संविधान की हत्या करने के लिए मेरे नाम की माला जपते रहिए। फिर हम एक दूसरे की पोजीशन बदल लेंगे। फिर अगले एक घंटे तक मैं आपको संविधान का हत्यारा साबित करने की चाल चलता रहूंगा। लोकतंत्र का गला घोटने वाला ठहरा दूंगा। न्यूजों वाली टीवी पर नोंक-झोंक चलती रहेगी। अपनी-अपनी पार्टी की दाल गलती रहेगी। मूर्ख दर्शकों के आगे अपनी सियासी चालें यूं ही चलती रहेगी। हम एक-दूसरे पर लांछन, आरोप, कीचड़ आदि लगाते रहेंगे। हम एक-दूसरे पर तर्क, कुतर्क आदि की बौछारें करते रहेंगे। एक घंटे पहले हम क्या थे, वो पाला आपस में बदल लेंगे। अपनी-अपनी पार्टी के गीत गाने के लिए, अपनी-अपनी महफिल सजाने के लिए, अपनी-अपनी डफली बजाने के लिए, अपना-अपना राग दरबार सजाने के लिए; बस यही सब ड्रामेबाजी तो करनी ही पड़ेगी! नाटक करना ही पड़ेगा। अपना-अपना पेट भरना ही पड़ेगा। जो नहीं करेगा ऐसा ड्रामा, उस पार्टी भक्त को यूं ही सड़ना पड़ेगा! आदमी का रूप धरकर सांप-नेवला बने यूं ही लड़ना पड़ेगा। एक-दूसरे की सीढ़ी खींचकर ऐसे आगे बढ़ना ही पड़ेगा। टीवी पर टाइम पास तो करना ही पड़ेगा।
कमबख्त! टीवी वाले टाइम के आधार ही तो पेमेंट करते हैं! जो जितनी ज्यादा वजनदार गाली बकेगा, उसका ज्यादा पेमेंट! जो जितना जोर से बोलेगा, उसी का ज्यादा पेमेंट! जो जितना बड़ा जूता दिखाएगा, उसी का ज्यादा पेमेंट! टीवी की डिबेटों का यही तो जलवा है। टीवी पर आओ, जूता दिखाओ और पेमेंट पाओ! झूठ बिखेरो और कहते जाओ, ये सब सिद्धांतों की लड़ाई है। सांप की केंचुली की तरह पार्टी बदलते जाओ और प्रतिबद्धता के गीत गाते जाओ। विचारधारा की लड़ाई बताओ और अपने निजी स्वार्थ के विचारों की धारा में बह जाओ। आप वास्तव में सिद्धांतों की लड़ाई लड़ते हैं। सच्ची सिद्धांत ये हैं कि आपके आगे जो पेट लटका हुआ है, उसमें तरह-तरह का माल भरना ही पड़ता है। सच तो यह है कि आप प्रतिबद्ध हो अपने स्वयं के विकास के लिए! अपने लिए एक के बाद एक नई कोठी, बंगले, कार के लिए! टीवी पर जूता दिखाओगे तो ही अपनी बीवी के लिए नई जूतियां लाओगे! विरोधी पार्टी के बैनर फाड़ोगे तभी तो टीवी पर लफ्फाजी के झंडे गाड़ोगे। वोट के इस खेल में, दो दलों के खेल में। बहस में सिर्फ अपनी पार्टी छाप जूता ही खोलिए। भेज दे कोई जेल में, वोट के इस खेल में! डरता नहीं, चाहे हो ज़मीं, चाहे आसमां। बहस जहां तक भी जायेगी, मैं वहां चला जाऊंगा। तेरा पीछा ना मैं छोड़ूंगा, चीख-चीख कर टॉप गालियां बोलिए। भेज दे कोई जेल में, वोट के इस खेल में। ओ मेरी कुर्सी रानी! तू है बड़ी सयानी! हे कुर्सी! ओ जान-ए-जिगर, चालू चुनाव में तू अगर, मुझसे ना मिली; टीवी पे आके दिन-रात चिल्लाऊंगा। तेरा पीछा ना मैं छोड़ूंगा, जात धर्म के जहर घोलिए। बस कड़वा-कड़वा जहरीला बोलिए।
— रामविलास जांगिड़,18, उत्तम नगर, घूघरा, अजमेर (305023) राजस्थान