गप्प…गप्प…गप्पबाबू

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

            नशेड़ी, गंजेड़ी लोगों से जैसे-तैसै पीछा छुड़ा सकते हैं, लेकिन गपोड़ी से नहीं। गपोड़ी बैठे-बैठे ऐसी गप्प हाँकते हैं कि सामने वाला सुनकर ही हाँफ जाए और पानी माँगने के बजाय जहर माँग बैठे। किंतु पिछले कुछ दिनों से गपोड़ियों की टोलियाँ काफ़ी परेशान हैं। उन्हें अब तक लगता था कि दूर तक की हाँकने की काबिलियत मात्र दुनिया में इन्हीं के पास है। यह ऐसी काबिलियत है जो सभी को यूँ ही नहीं मिलती। इसके लिए दशरथ माँझी बनना पड़ता है। करनी वाले दशरथ माँझी जहाँ अकेले अपने दम पर पहाड़ का सीना चीरकर रास्ता बना डालते हैं, वहीं कथनी वाले गपोड़ी दशरथ माँझी दुनिया के किसी भी मुद्दे का सीना चीरकर अपनी गप्प का रास्ता बना डालते हैं। अब धीरे-धीरे उनके दिन लदने लगे हैं। वह दिन दूर नहीं जब बेरोजगारों का सबसे पंसदीदा शौक गप्प हाँकना उनसे छीन लिया जाएगा। तब कहाँ जायेंगे गपोड़ी समुदाय के लोग? कौन सुनेगा उनकी गप्प? कौन उनकी आश्चर्यभरी बातों पर दाद देगा? यही सब सोच-सोच कर सभी गपोड़ी परेशान हैं।

            एक दिन अंतर्राष्ट्रीय गपोड़ी समुदाय ने बैठक बुलाने का निर्णय किया। समुदाय के अध्यक्ष और महासचिव पद पर गप्प, गप्पा, गप्पी के धाकड़ गपोड़ी काविज थे। अध्यक्ष थे लंबी-लंबी हाँक बाबू और महासचिव थे लंबी-लंबी लपेट बाबू। दोनों एक ही समुदाय और सरनेम वाले होने के कारण दोनों के तालमेल के बारे में पूछिए ही मत। यही कारण है कि पिछले कई वर्षों से इन्हें कोई हटा नहीं पाया। इनकी गप्प का लोहा सारी दुनिया मानती है। अध्यक्ष बाबू की हाँक और महासचिव की लपेट का कोई तोड़ नहीं है। दोनों के बिना गपोड़ समुदाय की कल्पना अधूरी है। कमाल की बात यह है कि दोनों भारतीय हैं।  वैसे भी भारत में रोजगार के नाम पर कुछ खास बचा नहीं है। एक समय था जब देश में राष्ट्रभक्त, देशनिर्माता, दूरदृष्टा, महान वैज्ञानिक पहुँचे हुए साहित्यकार व निस्वार्थ समाजसेवी जन्म लिया करते थे। पर इधर कुछ वर्षों से महँगाई के चलते देश में भ्रष्टाचार शिरोमणि नेता, देशतुडाऊ कट्टरपंथी, स्वार्थ साधने वाले हाई-फाई समाजसेवी पैदा होने लगे हैं। इसलिए बेरोजगार गपोड़ी बनकर अपना गप्पज्ञान लुटाने में अपनी भलाई समझने लगे हैं। इससे बेरोजागरी का तनाव, एकाकीपन, कुंठा, क्रोध आदि कम होता है। घरवालों और समाज के ताने सुनने और सहन करने की क्षमता बढ़ती है। डी.लिट् व पीएच.डी धारी गपोड़ियों की मानें तो गप्प हाँकना भी एक तरह का योग है।

            बैठक प्रारंभ हुई। अध्यक्षीय भाषण में लंबी-लंबी हाँक बाबू ने कहा, ‘अब हमारी गप्प का महत्व कम होने लगा है। आजकल के नेता हमसे भी लंबी-लंबी गप्प हाँक रहे हैं। कोई कहता है कि जब गाय घांस खाकर दूध देती है, तो वही घांस बैल भी खाता है इसलिए बैल भी दूध देगा। इतना ही नहीं, वे कहते हैं कि गटर में स्टोव की पाइप डालकर उसे स्टोव से जोड़ने पर खाना पकाया जा सकता है। कोई कहता है की कीचड़ में लोटने से कोरोना दूर हो जाता है। कोई कहता है कि सीता भारत की प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी है। कोई कहता है कि उसके पास ऐसी मशीन है जिसके एक छोर से आलू डालने पर दूसरे छोर से सोना निकलता है। इन गप्पों को सुनने के बाद जनता में उनका क्रेज बढ़ गया है। अब कोई हमारी गप्प सुनने के लिए तैयार नहीं है। आज तक मैंने अपने जीवन में ऐसे गप्पबाज नहीं देखे। इन गपोड़ी नेताओं के आगे हमारे सारे पैंतरे उल्टे पड़ते जा रहे हैं। अब करें भी तो क्या करें?’ पहली बार अध्यक्ष ने इतना निराशापूर्ण भाषण दिया था। अब बारी महासचिव लंबी-लंबी लपेट बाबू की थी। उन्होंने ओजस्वी स्वर में कहा, ‘राजनेताओं का गपोड़ी बनना कोई आश्चर्यवाली बात नहीं है। उनसे जैसे-तैसै निपटा जा सकता है। लेकिन विड़ंबना यह है कि नौकरशाहों, उच्च पदों पर आसीन महामहीमों का सामना कैसे करें? अब देखिए न, कोई जज कहता है गुजरात के सांप्रदायिक दंगों में कोई हिंसा हुई ही नहीं। अपराधियों को क्लिन चिट दे दिया जाता है। कोई जज कहता है कि बाबरी का ढाँचा अपने आप गिर गया इसलिए सभी आरोपियों को बेदाग बरी कर दिया जाना चाहिए। और तो और, इन जज गपोड़ियों का बड़ा सम्मान भी होने लगा है। किसी को राज्यसभा का पद दे दिया जाता है तो किसी को कुछ। अगर हालात यही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हमें पूछने वाला कोई नहीं रहेगा। एक बेरोजगार को श्रेष्ठ गपोड़ी बनने के लिए बेरोजगारी, महंगाई और कोरोनाकाल जैसा वातावरण मिलना चाहिए। संयोग से देश में वही वातावरण है। ऐसा अवसर फिर कभी नहीं मिलेगा। बेरोजगार गपोड़ी होने के नाते हमारा यह दायित्व बनता है कि हम एक से बढ़कर एक गप्प की खोज करें। मुझे पूरा विश्वस है कि यह काम भारत से बढ़कर कोई और नहीं कर सकता।’ जय गपोड़ी-जय जय गपोड़ी के नारों से वातावरण गूँज उठा। इसके तुरंत बाद सभी गपोड़ी नए-नए गप्प खोजने में लग गए।