राजेंद्र बज
यह विडंबना ही है कि व्यावहारिक धरातल पर अधिकांश राजनीतिक दलों में चिंतन की गहराई कहीं नजर नहीं आती। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर दलीय हित भारी पड़ रहे हैं। देश की राजनीति में उथली सोच का निर्लज्ज प्रदर्शन हो रहा है। निरंतर परिवर्तित परिवेश में विकसित भारत की परिकल्पना को साकार करने हेतु देश की दशा और दिशा को सुव्यवस्थित आकार देती कार्ययोजनाएं अधिकांश राजनीतिक दलों के पास नहीं है। केवल सतही सोच के आधार पर देश के विकास को तीव्र गति प्रदान करने विषयक ना तो नीतिगत फैसले लिए जा सकते हैं और ना ही प्रगति की रफ्तार को तेज किया जा सकता है। दूरगामी सोच का अधिकांश राजनीतिक दलों में अभाव गहन चिंता का विषय है।
विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच एक अजीब सी प्रतिस्पर्धा चल रही है जिसमें नागरिकों को बैठे-ठाले सब्जबाग दिखाकर सत्ता हथियाने की तमाम कोशिशें बदस्तूर जारी है। विगत चार-पांच वर्षों में देश के गौरव की प्रतीक उपलब्धि-दर-उपलब्धि को भी संदेह के दायरे में लाकर राजनीतिक स्वार्थसिद्धि की कोशिशें भी परवान चढ़ रही है। प्रतिपक्षी दलों का आत्मधर्म महज नेतृत्व की आलोचना करना ही रह गया है। वास्तविकता को नजरअंदाज करके प्रगति के शिखर पर पहुंचना और टिके रहना दुष्कर होता है। लेकिन यथार्थवादी सोच के साथ विकास की दिशा में तीव्र गति से बढ़ते कदम निश्चित रूप से मुल्क के मालिकों अर्थात आम नागरिकों के संज्ञान में ही रहते हैं। ऐसे में भ्रम पर आधारित राजनीति का कतई कोई भविष्य नहीं होता।
राजनीति में नीति और सिद्धांतों पर आधारित मतभेदों के प्रकटीकरण की परंपरा विलुप्त हो चली है तथा इसके स्थान पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला निरंतर जोर पकड़ता जा रहा है। विषय विशेष को लेकर तथ्यों पर आधारित तार्किक दृष्टिकोण की अपेक्षा तुकबंदी और जुमलेबाजी का नया दौर चल पड़ा है। निश्चित रूप से राजनीति की गरिमा में नकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। भविष्य की दृष्टि से यह स्थिति सुखद नहीं कही जा सकती। यदि राजनीति की विकृत परंपराओं पर विराम नहीं लगाया जाता तो कालांतर में राजनीति पेशेवर वर्ग के ही बस की बात होकर रह जाएगी। राष्ट्र के प्रति निष्ठा व समर्पण के भाव का अभाव राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट में चढ़ता नजर आता है।
देशभक्ति और जनसेवा की प्रबल भावना, बीते समय में राजनीति में प्रवेश का मुख्य कारण हुआ करती थी। लेकिन वर्तमान दौर में राजनीति स्वर्णिम भविष्य का एकमात्र आधार बनकर रह गई है, जिसमें अपार संभावनाएं अंतर्निहित है। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली राजनीतिक विरासत की परंपरा ने भी राजनीति का व्यवसायीकरण करने में कोई कसर शेष नहीं रखी है। राजनीतिक विरासत की जमावट का पीढ़ी दर पीढ़ी दोहन, राजनीति के प्रति व्यावसायिक बुद्धि रखने वालों को निवेश के लिए भी आकर्षित करने लगा है। राजनीतिक शख्सियत की भरपूर मार्केटिंग, सफलता का मार्ग प्रशस्त करने में प्रभावी रूप से सहायक सिद्ध होती रही है। कुल मिलाकर राजनीति में वंश परंपरा ने सेवाभाव की प्रासंगिकता को अर्थहीन बना दिया है।
कुल मिलाकर इन संदर्भों में आम नागरिकों द्वारा संज्ञान अवश्य लिया जाना चाहिए। चाहे हम राजनीति से परहेज किया करते हैं लेकिन यह स्थापित सत्य है कि राजनीति की दशा और दिशा के आधार पर ही हमारी स्थिति संवरती और बिगड़ती है। निश्चित रूप से हमें अपनी राजनीतिक विचारधारा अवश्य रखनी चाहिए। हम और कुछ नहीं तो सकारात्मक को प्रोत्साहित तथा नकारात्मक को हतोत्साहित तो कर ही सकते हैं। हमें संवैधानिक रूप से यह अधिकार प्राप्त है कि मतदान के माध्यम से देश की दशा और दिशा को निश्चित गति प्रदान करने के लिए तमाम विकल्पों में से श्रेष्ठ विकल्प का चयन कर सकते हैं। निश्चित रूप से यदि हम मूकदर्शक बने रहे तो भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं कर पाएगी