कहाँ खो गई गोधूलि

शाम को उड़ती धूल में

देखता आकाश की लालिमा

सूरज की धुँधली छवि

सूरज लेता शाम को सबसे अलविदा

गाय के गले में बंधी घंटिया

सूरज की करती हो शाम की आरती 

गोधूलि की धूल बन जाती गुलाल

धरा से आकाश को कर देती गुलाबी

नित्य ये पूजन चला करता 

वर्षा ऋतु  धूल और सूरज छिप जाते

देव कर जाते शयन

ये गाँव की कहानी

शहरों में धूल कहाँ औऱ सूरज भी कहाँ

सीमेंट की ऊंची बिल्डिंग

सड़के डामर की

कहाँ गाय के गले मे आरती की घँटी

गोधूलि का महत्व गाँव मे होता

शहरों में तो काऊ महज पढ़ाया जाता

गाँव प्रकृति से सजा इसलिए तो

सुंदर है

सोचता हूँ

गॉव जाकर प्रकृती को पुनःपहचानू।

संजय वर्मा ‘दृष्टि’

मनावर(धार)मप्र