मैं
कभी नहीं चाहती
हमारे पवित्र प्यार को
विवाह नाम के बंधन में
बाँधा जाये
जिसमें आगे चल कर
प्रेम ही ना बचें
बस और बस
तकरार में जिया जाये….
मेरे निश्चल प्रेम में
कोई वासना ना हो
ये बच्चों के मन-सा
पवित्र और परिशुद्ध हो
भोग-विलास जैसी चीजें
कहीं ना हो मन में
हम प्रेम में जियें और
प्रेम में ही चले जायें…..
तुम साथ बैठो
मेरी आँखों में खुद को निहारो
जहाँ तुम महसूस करो
की मेरी पूरी दुनिया तुम हो
मैं चाहती हूँ
मेरी माथे की बिंदिया को
निहारों तुम जी भर
जो तुम्हें सारे संसार का
केन्द्र बिंदु सा प्रतीत हो….
मेरी आँखों के काजल में
गिरफ़्त हो जाओ
जैसे जाल से मछली
निकलना भी चाहें तो
निकल नहीं पातीं….
मैं चाहती हूँ
तुम सबसे छुपाकर
मुझे दुर कहीं ले जाओ
हाथों में हाथ थामें
मेरी ताक़त बन जाओ…..
मैं चाहती हूँ
कभी कहीं एकांत में
तुम्हारे कंघे पे अपना सर रखूँ
और तुम बिना कहे ही
मुझे सुन लो समझ लो….
और ले चलो
सबकी नज़रों से दूर
ओझल हो जाऊँ सबकी पहुँच से,
बस बिना विवाह
वासना रहित , पवित्र
तेरा मेरा प्रेम हो……
● रीना अग्रवाल
सोहेला, बरगढ़ (उड़ीसा)