प्रेम को मिल जाता है
कोई देह,आंख जुबान
पर प्रतीक्षा धंसी रह जाती है
छाती के किसी कोने में
बिल्कुल नींव के पत्थर की तरह
उम्मीद के ठीक नीचे
हाँ! वक्त बेवक्त घुलने लगती है
आँखों के खारेपन में
प्रेम को मिल जाते हैं कई रंग
पर हमने नहीं देखा
भोर की प्रतीक्षा में
रातो को गेरुआ सजते
प्रेम में प्रतीक्षा संभव सा है,
पर प्रतीक्षा में प्रेम तय नहीं
हाँ!प्रतीक्षा सुखद होती है
जब दिख जाते हैं
उस छोर पर दो परिचित आंखें
और उनमें पलती प्रतीक्षा
क्षमा शुक्ला,
औरंगाबाद-बिहार