डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657
इधर कुछ दिनों से हमारे दिमाग में कुबुलाहट हो रही थी। खाली दिमाग शैतान की दुकान होता है। हमारा शैतान पिछले कुछ दिनों से चुपचाप बैठा था। इसका चुपचाप बैठना हमारे जैसे बेरोजगारों को तो कतई शोभा नहीं देता। इसलिए टाइमपास करने के लिए कुछ न कुछ ऊटपटांग करते रहना चाहिए। न कुछ करो कम से कम दिखावा तो जरूर करना चाहिए। अपने लिए न सही औरों के लिए तो करना चाहिए। वैसे भी जमाने भर में हम अकेले थोड़े न है जो लोग हम पर आँखें गड़ाना छोड़ देंगे। समझ लीजिए भेड़ के जितने बाल होते हैं, उतने ही हमारे जैसे लोग हैं। इसलिए कुछ न कुछ खुराफाती हरकतें करते ही रहना चाहिए। इससे स्वास्थ्य भी बना रहता है और मूड़ भी।
एक दिन हमारे ही जैसे किसी मित्र ने मुझे फोन किया। वह बड़ा खुश था। किसी प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार का निधन उसके लिए बंपर ऑफर लाया था। हमने लोगों को किसी के जन्म लेने पर खुश होते हुए देखा था। यहाँ पहली बार किसी को किसी के मरने पर इतना खुश होते हुए देखने का अद्वितीय अवसर आज ही प्रात हुआ था। हिंदी साहित्य से हमारा वही नाता है जो ए.आर. रहमान का हवाई जहाज चलाने से है। कभी परीक्षा के लिए थोड़ा-बहुत पढ़ा था, पास होने के बाद सारा हिसाब बराबर। साहित्य के अंक सर्टिफिकेट में और हमारा ज्ञान दिमाग से घुटनों के रास्ते होते हुए कब का बाहर निकल गया। अब भला इन सबको याद रखने से कोई नौकरी मिलती है, जो फालतू में याद रखकर दिमाग को कबाड़ी की दुकान बनाना है।
हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार के निधन से उपजे सुखद क्षण से दो-चार होने के लिए मित्र से कारण पूछा। उत्साह के चरम पर बैठे मित्र ने कहा – यार! हम तो ठहरे बेरोजगार। कोई न कोई रोजगार तो चाहिए ही। क्यों न मैं, तुम और अपनी तरह फालतू में पड़े अन्य मित्रों के साथ मिलकर एक संस्था की स्थापना करते हैं। इसके लिए हमें हिंदी साहित्य के ज्ञान की आवश्यकता भी नहीं है। आवश्यकता है तो विशेष संदर्भों की। जैसे फलाँ साहित्यकार के जनम, मरण के संदर्भ में आए दिन ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन करना। यहाँ देरी आलस्य विष के समान है। हमारी जैसी सोच वाले बाजार में लाखों पड़े हैं। इसलिए यहाँ आलस जहर जैसा लगता है। वैसे भी हिंदी में अतिथियों की कोई कमी नहीं है। देखा जाए तो हिंदी में पाठक ही कहाँ बचा है, सब के सब साहित्यकार ही तो हैं। यहाँ एक लाइन लिखने से लेकर सैकड़ों पुस्तकों पर कलम घसीटने वाला साहित्यकार ही तो कहलाता है। सब में नाम कमाने की जबरदस्त भूख है। हमें इनकी इसी भूख का लाभ उठाना है। बस एक पोस्टर बनाना है। दो चार फोटो लगाना है और ऑनलाइन हो जाना है। खेल खतम दुकान बंद।
यह सब तो ठीक है लेकिन इससे हमें क्या फायदा होगा? मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया। मित्र ने तुरंत चुप कराने वाला जवाब देते हुए कहा – यार! तुम बुद्धू के बुद्धू ही रहोगे। ऐसा धंधा पौधों को पानी देने के समान होता है। यह आज नहीं आने वाले दिनों में इतना फल देंगे कि बैठे बिठाए हमारी चांदी ही चांदी होने लगेगी। इसके लिए ऑनलाइन कार्यक्रम में जुड़ने वाले सभी लोगों के मोबाइल नंबर, ईमेल आदि पर नियमित रूप से झूठी वाहवाही का मछली वाला दाना डालते रहना चाहिए। फिर एक दिन पुरस्कार-सम्मान से संबंधी कोई बड़ा सा बिस्कुट का टुकड़ा फेंककर तमाशा देखना चाहिए। तब अपने आप कई सम्मान के भूखे सामने से हमें रुपए-पैसे देकर पुरस्कार खरीदते मिलेंगे। इस देश में कुछ बिके न बिके मान-सम्मान जरूर बिकता है। इसके खरीददारों की संख्या भी अनंत है। इसलिए लो इनवेस्टमेंट और हाई प्रॉफिट वाले इस सदाबहार धंधे में भाग्य आजमाने से पीछे न हटो। वरना आगे चलकर बहुत पछताओगे।
मित्र के खुराफाती विचारों वाली धरती से धन उगाही का जो बीज फूटा था, उसकी जड़ें अब मुझमें घर कर गयी थीं।