बाबासाहब ने अपने बचपन के दिनों में कई बाधाओं का सामना किया था, लेकिन वे सामाजिक अन्यायों के विरूद्ध मजबूत बनकर खड़े रहे। रोजमर्रा की समस्याओं से बचने के लिये रामजी सकपाल (जगन्नाथ निवानगुणे) अपने परिवार को दो भागों में बांट देते हैं, जिससे भीमराव और रमाबाई (नारायणी महेष वरणे) को अपनी दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है। रमा के भाई-बहन छोटी और शंकर छोटे-मोटे काम करके परिवार के गुजारे में योगदान देने लगते हैं। यह जानकर भीमराव चैंक जाते हैं और उन्हें तुरंत काम छोड़ने के लिये कहते हैं। इस बीच उन्हें पता चलता है कि उनकी चाॅल के कई बच्चे पटाखों के एक कारखाने में काम कर रहे हैं, ताकि अपने परिवारों को चला सकें। भीमराव को गुस्सा आ जाता है और वह उन बच्चों के माता-पिता को समझाने की कोशिश करते हैं कि छोटे बच्चों को शिक्षा और पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिये, ताकि उनका भविष्य अच्छा हो। हालांकि, भाग्य करवट बदलता है और शंकर भी उसी कारखाने में काम करने लगता है और मौत के करीब पहुँच जाता है, जिससे भीमराव और रमाबाई तनाव में आ जाते हैं। फिर भीमराव बाल मजदूरी नामक बुराई के खिलाफ खड़े होने का फैसला करते हैं और उसके विरोध में अपनी मजबूत राय रखते हैं।