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किसी ने भरे बाज़ार में रेणु के हाथ से उसका बटुआ झपट लिया था । मध्यमवर्ग की गृहणी के बटुए में पैसे तो ज़्यादा नहीं थे, लेकिन मोबाईल फोन, ड्राइविंग लाइसेंस, और पिताजी की दवा का एक पर्चा चले गए थे । घर में फोन करके बताने के लिए एक एक से गिड़गिड़ाती रही पर सब ऐसे मुकर गए जैसे उन्होंने फोन कभी देखा ही न हो । आंखों में आंसुओं से ज़्यादा दहशत लिए घर पहुंची तो अचानक ध्यान आया कि एफ आई आर तो लिखवानी पड़ेगी , नहीं तो ज़रूरी कागज़ दोबारा नहीं बन पाएंगे । डरते डरते थाने में फोन लगाया तो उधर से एक खूंखार सी आवाज़ ने इतने सवाल पूछे मानो हमने ही किसी का पर्स छीना हो । खैर अंत में बताया गया कि आप थाने आकर रिपोर्ट दे जाएं और अगर नहीं आ सकते तो थोड़ी देर में एक कांस्टेबल आ रहा है , उसे सब लिखवा दें ।
रेणु बाहर वाले कमरे में जाकर सोफे पर पसर गई थी और मैं स्मृतियों के पंख पसारे इस झपटमार सभ्य शहर से कोसों दूर अपने गांव ………
बात उन दिनों की है जब मैं बहुत छोटा था / यही कोई 10-12 साल का रहा होऊंगा / गर्मियों की छुट्टियाँ / गाँव जाने की तैय्यारी / कुछ लोहे के संदूक , और बाकी सफ़र की ज़रूरी चीज़ें / एक अजीब सा उत्साह / एक ही गाडी से अक्सर जाना होता था , जनता एक्सप्रेस / कहने को एक्सप्रेस लेकिन रफ़्तार ऐसी कि जितनी बार , जहाँ मर्ज़ी चढिये , उतरिये , गाडी को कोई जल्दी नहीं / कोयले का काले मुंह वाला इंजिन , जो गाँव के हुक्का गुडगुडाते बड़े बूढों की तरह या तो खाँसता था या धुयाँ फेंकता था / खिडकियों में ना तो शीशे ही होते थे और ना ही सलाखें / लिहाज़ा बच्चों के सर सारे सफ़र में बाहर ही निकले रहते थे / नतीजा ये कि गंतव्य स्थान पर पहुँच कर पहले सबके मुंह धुलवाकर देखना पड़ता था कि पप्पू कौन सा है और बिट्टू कौन सा / उस बार पिताजी साथ नहीं जा पाए थे / माँ के साथ हम छह भाई बहिन और बहुत सारे सामान के नग /
चिरपरिचित धारीवाल स्टेशन पर पहुँचते पहुँचते अँधेरा घिर आया था / लेकिन समय की फ़िक्र किसे होती थी / सबसे बड़ी ख़ुशी यही होती थी कि पहुँच गए हैं / हमेशा की तरह सबसे पहले मां ने वहां लगे एकमात्र हैण्ड पम्प से बारी बारी से सबके मुंह धुलवाए और फिर संदूक से एक ही थान से बनी फूल बूटे वाली नयी कमीजें पहनने को दीं / आगे का लगभग 4 – 5 मील का सफ़र तांगे पर तय किया जाना था ; जो हम शहरी बच्चों के लिए किसी रोमांच से कम नहीं होता था किन्तु क्योंकि गाडी अप्रत्याशित रूप से बहुत विलम्ब से पहुंची थी सो स्टेशन के बाहर खड़े इक्का दुक्का तांगे वाले घरों को चले गए थे / अचानक अपने ही गाँव का चन्नन सिंह दिखाई दिया तो माँ ने लंबा सा घूंघट खींचकर उसे गाँव जाकर बाऊजी को सन्देश देने को भी कह दिया / हम लोग खेतों के बीच में बल खाते कच्चे रास्ते पर बढ़ने लगे / सब बच्चो के हाथ में सामान का एक एक नग / हम बेफिक्र हो गाँव की ओर बढ़ रहे थे / आश्वस्त थे कि चन्नन सिंह ने गाँव पहुँच कर संदेस दे दिया होगा और अभी घर से कोई लेने आता ही होगा / उधर चन्नन सिंह कहीं बैठा शराब पी रहा था …..
अँधेरा बढ़ने लगा था और मां और हम छह भाई बहिन धीरे धीरे खेतों की मेढ़ों पर गिरते पड़ते गाँव की और बढ़ रहे थे / अचानक हमारा काफिला रुक गया / सामने पानी की एक छोटी सी नदी ( जिसे गाँव वाले ”खाल ” कहा करते थे ) रास्ता रोके पड़ी थी / अँधेरे में यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल था कि पानी की गहराई कितनी है ?! अचानक हमारे रोंगटे खड़े हो गए ! दूसरे किनारे पर एक आकृति हिलने लगी थी और पानी में उतर कर धीरे धीरे हमारी ओर बढ़ रही थी ….. माँ को काटो तो खून नहीं … उसने सब बच्चों को अपने पास खींच लिया …. आकृति और करीब आ चुकी थी …..
अचानक एक आवाज़ आई ,
” डरो मत बहन , पानी ज्यादा गहरा नहीं है / ” कोई किसान था जो कम्बल ओढ़े खेत की रखवाली पर बैठा था / माँ के हाथ का संदूक उठाकर और दो सबसे छोटे बच्चों को अपने कन्धों पर बिठाकर उसने हमे पानी में भीगते हुए दूसरे किनारे पर पहुंचा दिया /
”बस यहाँ से आगे रास्ता बिलकुल ठीक है और खुंडे से आपको तांगा भी मिल जाएगा ” कहते हुए उसने अपना कम्बल ठीक किया और अपने खेतों की और बढ़ गया /
उस अँधेरी रात में सुनसान रास्ते पर एक अकेली औरत अपने बच्चों -बच्चियों के साथ सामान लिए हुए …… फिर भी कोई खौफ नहीं ….. कोई ख़तरा नहीं ….. हर व्यक्ति मदद को तैयार …..
उस दिन के बाद चन्नन सिंह कभी दिखाई नहीं दिया था । शहर लौटने वाले दिन हमने आखरी बार उसे तब देखा था , जब वो बाऊजी से अपने किए की माफ़ी मांग रहा था ।
………..”सुनिए पुलिसवाला चाय पानी के लिए कुछ मांग रहा है …..”
बाहर वाले कमरे से पत्नी की आवाज़ आई तो मुझे होश आया कि हम तो अब देश के सबसे सभ्य शहर में रहते हैं ….. !!
रवि ऋषि
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