अपना खुदा भी…..

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पता नहीं कुछ -कुछ

ऐसा मन में लगता है

सांसों का सांसों से

नाता अनजान लगता है

हर पहर जैसे हो पहरे

बातों पर भी पहरा

लगा हुआ सा रहता है।

किससे कहें, किससे करें

मन की बातें यहां

मन खामोशी से डरा- डरा

पल- पल जैसे लगता है।

कहे क्या ,समझे क्या

अर्थ अनेक निकलता है

मन के भावों का अब

संग्राम सा मुझे लगता है।

अच्छा हो लग जाये

ताले चुप्पियों के यहां

अपना खुदा भी बेगाना सा

जुदा -जुदा सा लगता है।

    लाल बहादुर श्रीवास्तव