चौराहों पर आदमकद विज्ञापनों में वे जब हँसते है। तो जनता जनार्दन असमंजस में पड़ जाती हैं ! शुरुआत में कोई नहीं समझ पाता कि उनकी इस मुस्कान का राज़ क्या है ? पर वे आत्मविश्वास से लबरेज़ रहते हैं।
वे ऐसे ही सब पर हँसते है। कभी मंच से, कभी मोटरकारों में से, सफेदझक कुर्ते से निकलती हँसी, तो कभी लोकतंत्र के सभागारों में बैठे बैठे मुस्कुराते है ! दो राष्ट्र अध्यक्षों की वार्ताओं में यह हँसी विश्वबंधुत्व का मार्गप्रशस्त करती हैं ! तो कभी सौ करोड़ की वसूली के बाद भी वे ऐसे ही मंद मंद मुस्काते है। लोकतंत्र पर खतरा आने के समय यह गठबंधन के रूप में मंच से अपनी कोमल मुस्कान बिखेरते है। कोरोना-ओरोना जैसी महामारी भी इस हँसी से घबराती है ! कोरोना के नये वेरिएंट इससे घबराकर क्वारेंटाईन हो जाते हैं। शायद किसी बुद्धिजीवी ने सही ही फरमाया कि इस मदमस्त हँसी के पीछे “मत-वाली हँसी” का भारी-भरकम योगदान है।
जब से ऐसे बुद्धिजीवी महाशय ने इस हँसी के बारे में बताया मुझे इस हँसी को जानने की जिज्ञासा ओर बढ़ गई कि मतवाली हँसी के लक्षण कैसे होते है ? एक दिन मतवाली हँसी हँसने वाले से ही पुछ लिया। मेरे क्षेत्र के ही है या फिर उनके अनुसार मैं उनके चुनाव क्षेत्र का ही मतदाता हूँ ! इसलिए उन्होंने बताया कि ‛चुनाव में मतदाता से मत प्राप्त करके जो उसपर व लोकतंत्र पर पाँच वर्षों तक हँसते रहे, उसे “मत-वाला” कहते है और उसकी हँसी को “मत-वाली” हँसी कहते है !’
इस मतवाली हँस पर छाती चोड़ी करते हुए वे मतवाले से होकर आगे इसका ओर विस्तारपूर्वक वर्णन करने लगे ! कहते हैं हमारी इस हँसी से लोकतंत्र के तीनों स्तंभ स्वस्थ रहते है। कोई महामारी इन्हें टस से मस नहीं कर सकती हैं। आगे बकते गये ;- यह जब भी किसी मंच या चुनावी रैली से जनता में प्रसारित की जाती है तो यह ‛हमारे विकास सूचकांक को बताती हैं।’ वहीं विपक्ष के गिरते ग्राफ को इंगित करती हैं। समाचार पत्रों में लाखों रुपए देकर इस हँसी को छपाना पड़ता है। शिष्टाचार के तौर पर बाजार जिसे विज्ञापन कहता है ! जिससे हमारे देश की विश्व में “हेप्पीनेश रैंक” बढ़ती है। जनता इसे विकास का पैमाना मानती हैं। और इसी आधार पर हमें चुनावों में भारीमात्रा में मत मिलते हैं। जिससे मत-वाली हँसी में दिनोंदिन वृद्धि होती रहती है और परिणाम में नागरिकों की हँसी माननीयों के खाते में आ जाती हैं।
इस छटा का चित्र तो बड़े से बड़े चित्रकार भी अपनी कृति में आजतक नहीं खिच पाये ! आज यदि महान चित्रकार राजा रवि भी जीवित होते तो इस सौम्य हँसी का हुबहू चित्र नहीं बना पाते ! यह जब भी सफेदझक परिधानों से व बड़ी बड़ी लक्झरी गाड़ियों से झांकती है, तो सीधे जनता के ह्रदय पर अंकित होती हैं। जिससे मतदाता मतदान के दिन दिनभर पंक्तियों में लोकतंत्र के तीनों खंबों के सहारे खड़े रहते हैं।
इस हँसी को संरक्षित करने के लिए बड़े बड़े बंगले बनाये जाते हैं। आचार संहिता का बंदोबस्त किया जाता हैं। बड़े बड़े भत्ते, वेतन, मान व मानदेय् दीये जाते है ! तो कभी सांसदों के शिष्ठ मंडल के सदस्य के तौर पर विदेशों में जाकर भी इस हँसी के माध्यम से शिष्ठता को बिखेरा जाता है। कभी कभी तो इस “मत-वाली हँसी” को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षण के लिए चौराहों-चबुतरों पर मूर्तियां स्थापित करके नागरिकों के अधिकारों व लोकतंत्र तक की बलि तक दी जाती हैं।
भूपेन्द्र भारतीय
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