झटका मुर्दा और हलाली मुर्दे

इधर आजकल मरने वाले लोग बहुत ढीठ हो गए हैं। वे बिना अस्पताल जाए सीधे ही मर रहे हैं। इससे अस्पताल व्यवसाय पर करारी चोट पहुंची है। ऐसे सीधे मरने वालों पर सरकार द्वारा कठोर कदम उठाने चाहिए। कमबख्त! लोग समझते ही नहीं है! सरकारी और प्राइवेट! दोनों प्रकार के अस्पताल मारने की बेहतरीन सुविधा के लिए एक दूसरे से कंपटीशन लगाए बैठे हैं। कौन किससे ज्यादा मार सके, इसका बराबर हिसाब रखा जा रहा है। मरने की इतनी तमाम सुविधाओं के बाद भी अगर कोई बंदा बिना अस्पताल जाए सीधे श्मशान घाट पहुंचता है, तो ऐसे मुर्दे के खिलाफ कड़ी कार्रवाई तो बनती ही है। सामने जो एक बड़ी भारी सी होटल नुमा बिल्डिंग दिख रही है; वह वास्तव में होटल नहीं होकर यह एक बहुत बड़ा अस्पताल है। अस्पताल है लेकिन इस अस्पताल को होटल कह दें तो ज्यादा अच्छा रहेगा! इसमें आज तक जो भी व्यक्ति जमा हुआ है; वह शुद्ध रूप से मुर्दा बनकर ही निकला है। 

अस्पताल में करोड़-करोड़ों की मशीनें लगी हुई है। ये मशीनें कई प्रकार की जांचें फरमाती है। यह एक जांच का विषय है कि इन मशीनों की जांचों में आज तक कितनी जांचे फायदेमंद साबित हुई है? मशीनें खरीदी है, तो उनका ब्याज भी तो चुकाना है! इसलिए मरीज की एंट्री होते ही खून, थूक, मल, मूत्र, लार, पसीना, नाखून, बदबू, हड्डी, बाल, आंखें आदि की जांचें जरूरी होती है। लाखों करोड़ों रुपयों के ब्याज को चुकाना कोई बच्चों का खेल नहीं होता है। बाकायदा डॉक्टरों को ट्रेनिंग दी हुई है कि वे नर्सों के साथ मिलकर आने वाले व्यक्ति के साथ बलपूर्वक सत्कार करे! मरीज को मन लगाकर लूटे। उसे तसल्ली से निचोड़ कर पलंग पर फेंक दें। फिर उसे आहिस्ता-आहिस्ता, धीरे-धीरे, स्लोली-स्लोली मारे। धीरे-धीरे मारने वाला यह एकाधिकार प्राइवेट अस्पतालों का होता है। कई अस्पताल ऐसे होते हैं, जिनमें ऐसी सुविधा होती है कि वे तत्काल ही मार देते हैं। यह तत्काल मारने की सारी सुविधा सरकारी अस्पतालों के जिम्मे है। सरकारी अस्पताल एकदम झटका टाइप के होते हैं। सरकारी डाक्टरों के पास इतना टाइम नहीं होता है कि वे धीरे-धीरे मारते ही रहें। सरकारी सफाखानों में मरीज इधर से गया और उधर से टपका। फिर सीधा श्मशान ओर लपका! 

प्राइवेट अस्पतालों में ऐसा नहीं है। प्राइवेट डॉक्टर ऐसी जल्दबाजी नहीं करते। वे धीरे-धीरे तड़पा-तड़पा कर होले-होले ही मारते हैं। इसमें मरीज नहीं तड़पता है, बल्कि मरीज के परिजन तड़पते हैं। मरीज पलंग पर नहीं पड़ता है, बल्कि मरीज के परिजन पलंग पर पड़ जाते हैं। ऐसी शानदार सुविधाएं वाले फाइव स्टार होटलों वाले अस्पतालों में मरने के मजे ही कुछ और है! इसलिए वे व्यक्ति जो बिना अस्पताल गए मरते हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। यही सरकारी व्यवस्था है। ये लोग सीधे मरकर चिकित्सा व्यवसाय को ठप करने में लगे हुए हैं। ये इनका षड्यंत्र है। ऐसे षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए। अस्पताल बनता है। उसमें मशीनें लगती है। लोन लिए जाते हैं। इनसे बैंकें चलती है। इसलिए अस्पतालों को पूरे अधिकार हैं कि वे अच्छे-खासे व्यक्ति को पूरी तरह से निचोड़ें। जब परिजनों के खून का एक भी कतरा नहीं बचे, तो मरीज को मुर्दा बनाकर श्मशान घाट की तरफ उछाल देना चाहिए। झटका मुर्दा और हलाली मुर्दे के अपने-अपने जलवे होते हैं श्रीमान!

— रामविलास जांगिड़,18, उत्तम नगर, घूघरा, अजमेर (305023) राजस्थान