चांद की रोशनी में आहिस्ते से घर गया हूं ।
रौशनी के रात खौफ में रिश्तों डर गया हूं ।
देख लेने की खुशी में भूलता बेखौफज़दा
मेहबूबा की नज़रें तिरे मसीत दर गया हूं।
बेखबर होकर चले शाम शहर के सड़कों में
मौत पेशानी लिखी ही बेरंगों से मर गया हूं।
मौत के अंधेर से डरकर रहते रहे थे कभी
रौशनी में मौत बदरंग रिश्तेदार घर गया हूं।
लीजिए नज़र से बाकायदा गुजारिश मेरी है
चांद की रोशनी कर साफ़ हूजूर दर गया हूं ।
के एल महोबिया
प्रवक्ता हिंदी
अमरकंटक अनूपपुर मध्यप्रदेश