धानी चुनरिया ओढ़ धरा पर झुका है नीला अंबर
रूप सलोना देख धरा का इतराता जाड़ा आया
देख प्रकृति की स्मित मुस्कान सबका मन हर्षाया
पर्वत ने धूप की चादर ओढ़ी झरनों ने खेली अठखेली
गीले पत्तों पर इतराता फिरता सुबह की किरनें आई
झिलमिल करते मोती जैसे लुट गया ओस खजाना
चहुँ दिशाएँ खुशबू से भर कर फूलों का रंग उडा़या
सतरंगी कोमल पंखों से तितली ने जीवन राग सुनाया
भौंरे की गुंजन ने पंखुड़ियों पर सुरमई संगीत सजाया
खेतों की मेढो़ं पर मखमली छीमियों ने झूमर खनकाया
बौना चना बना है दुल्हा पहन गुलाबी साफा
पीली पीली सरसों ने मानो हल्दी तन पे लगाया
गोभी, मूली,,पालक ने उपकार किया सब जन का
दुपहरी की नरम आलसी धूप ऐसे लेटी जैसे दादी हो मेरी लेटी
शाम का सूरज ऐसे शरमाया सुर्ख लालिमा गालों की
सर्द हवाओं ने थपकी दे कर आँचल में सुलाया रजनी के तारों को
देख प्रकृति की स्मित मुस्कान सबका मन हर्षाया
लीला तेरी समझ न आई मानव को खूब् नचाया
संवेदनशील प्रकृति की भग्न संवेदना से क्षमा याचना करती हूँ
प्रकृति के सागर को भर भर कर अपनी ममता खूब लुटाओ।।।
मंजुला श्रीवास्तव