लघुकथा
ऑफिस में हड़कंप मचा हुआ था। मालिक ने रिटायर होनेवाले कर्मचारियों को पेंशन देने के लिए एक अजीब शर्त रखी थी। नौकरी की आयु पूरी कर चुके कर्मचारी को अपने बारे में एक घोषणापत्र देना था। इसमें अन्य जानकारियों के साथ यह भी बताना था कि उसने हमेशा ईमानदारी से अपनी पूरी क्षमता के साथ संस्था की सेवा की है या नहीं? अगले कॉलम में पूछा गया था कि वे हमेशा सच बोलते हैं या कभी-कभी झूठ का सहारा भी लेते हैं?
‘कितनी अजीब बात है !’ शेखर बड़बड़ाए- ‘चालीस साल की नौकरी में जो समझ नहीं पाया कि हमने कितना काम किया है? हम झूठे हैं या सच्चे? वह हमारी एक स्वीकारोक्ति को मान लेगा?’
अधिकारी ने शंका का निवारण किया- ‘मालिक का कहना है कि नौकरी में हमने अच्छी पगार दी, छुट्टी, बीमा और इलाज जैसी अनेक सुविधाएं दीं। पीएफ, ग्रेच्युटी दी जाएगी। उम्र के आखिरी पड़ाव में घर बैठे पेंशन देंगे। संस्था ने इतना कुछ किया। परंतु क्या आपने भी संस्था को अपनी काबिलियत का शत प्रतिशत दिया है?’
‘यह झूठ बोलने की जानकारी?’ एक बुजुर्ग ने सवाल किया।
‘इसका मतलब तो समझ में आ जाना चाहिए।’ अधिकारी मुस्कुराया- ‘मालिक जानना चाहते हैं कि आपकी घोषणा सही है या नहीं?’ ‘लोग इसमें सही बात लिखेंगे क्या?’ तीसरे व्यक्ति ने पूछा। ‘जब यह कहा गया था कि पापी महिला पर पहला पत्थर वही चलाएगा जिसने खुद कोई पाप नहीं किया हो, तब यह चिंता नहीं की गई थी कि लोग अपने गुनाह छिपाकर पत्थर चला देंगे।’ अफसर की मुस्कुराहट हंसी में तब्दील हो चुकी थी। ‘आपका विश्वास आपको मुबारक।’ सेवानिवृत्त हो रहे कर्मचारी घोषणापत्र में जानकारी भरने लगे।
‘हमारा और आपका वर्षों का साथ रहा है। संस्था आपके झूठ और सच को पहचान लेगी।’ अधिकारी बोला- ‘आपकी पेंशन तो पक्की है, लेकिन यह घोषणापत्र आपके व्यक्तित्व का आईना होगा जो हमें अपने कर्मचारियों के साथ संबंधों को सुधारने के काम आएगा।’ सभी के चेहरे पर ऊहापोह की झलक देखने लायक थी।
-रमेश रंजन त्रिपाठी