कलरव सुन-सुन खग-विहग का होता भान है भोर,
चीं चीं चिड़ियां चहककर चहुं दिशि करतीं शोर।
सन-सन पुरवैया चले करती खट खट द्वार,
मन मेरा प्रिय आस में पल पल निहारे द्वार।
ज्यों ज्यों पुरवाई तेज हो धड़के अथक जिया,
साज श्रंगार में मैं लगी अब आन मिलेंगे पिया।
छा गये कारे बादरा चमके चपला चहुं ओर,
मानो राह दिखा रही प्रिय मनवा झूमे मोर।
प्रिय आवन की सोचकर चेहरे पर बिखरा नूर,
लाल गुलाबी मुख हुआ शरमाए शबनमी हूर।
थोड़ा सा खटका सुनूं चाहे पल्लव खड़के पेड़,
मन मेरा कुसुमित हो उठा आकर तो करेंगे टेर।
दस्तक जब हो द्वार पर दौड़ के खोलूं द्वार,
द्वारे पर कोई नहीं देख अब मैं करूं पुकार।
ये सब पुरवैया का खेल है वही है मुझे सताए,
विकल प्रिया को देखकर प्रियतम मन हर्षाए।
प्रियतम का संदेश जब अंतर्मन में देता सुनाई,
पल-पल ये इंतजार की घड़ियां बीते नहीं बिताई
पुरयैया की शीतलता प्रिय बिन आग सी धधके,
आ जाते गर प्रिय अंगना में मैं बैठूं सज धज के।
दस्तक हुई द्वार पर अबकी सजना खड़े थे द्वार,
सजके सजनी मिले सजन से मन गावे मल्हार।
अलका गुप्ता’प्रियदर्शिनी’
लखनऊ उत्तर प्रदेश।