बना अश्रु पर्याय, गिरा दो तुम रोकर।
बचा सकूं अन्याय, स्वयं मिट के हँसकर।
मिलूँ धूल हो व्यर्थ,नियति में जो अंकित।
या फिर बनूँ समर्थ,प्रकृति का यह इंगित।
खारापन अवशेष, मधुरता क्या होगी।
अभिलाषा बस शेष, बनूँ मैं उपयोगी।
एकमात्र यह सोंच, धरा पर जब आऊँ।
पाऊँ प्यासी चोंच, तृषा पर बलि जाऊँ।
पंकज त्रिपाठी
हरदोई उ प्र