बेचारगी

कभी वास्तविक होती थी मुस्कान

निष्कपट और निश्छल।

कल-कल करती 

पहाड़ी जलधारा सी

मोहक और चंचल।

जो निःस्वार्थ थी और

बरबस अपनी ओर खींच 

लेती थी

किसी शक्तिशाली विद्युत

चुम्बक की तरह।

पर अब?

अब अक्सर ओढ़ी हुई 

होती है मुस्कान।

जिसमे छल और कपट 

भरा होता है।

जो इंचों में फैली होती है

और पलों में गिनी जा 

सकती है।

जो बेशर्म है और अभिनय

भी नही कर पाती

 किसी अभिनय सम्राट की तरह

और उससे बू आती है

स्वार्थ और बनावट की।

मिलावट के जहर में 

इस हद तक घुली है

आज की मुस्कान।

दुःख है कि

दुखों के इस साम्राज्य में

दुःख तो  हँस  सकता है

मुस्कान के ऐसे हश्र पर,

लेकिन अपने अस्तित्व को 

बचाने के लिए

प्रकट रूप में ,

रो भी तो नही सकती मुस्कान।।

सन्तोष सुपेकर,

31 सुदामा नगर, उज्जैन

मध्यप्रदेश

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