नदी

ज्यों-ज्यों  

सभ्यता अपनी

केचुँली बदल रही है

पवित्रता की प्रतीक 

नदियाँ  

लाचार है

सभ्यता के निर्माण के

उन सुनहरे दिनों को

विजयगान की धुनों को

याद करके

व्यथित हुआा मन

थका हुआ तन 

आज अपनी  

संवेदनाओं को

बयां करती है नदी

विकसित सभ्यता के

नग्न मानसिकता वादी 

लोगों के

पाप धोते-धोते 

नदियाँ  

आजकल कुछ

सहमी -सहमी सी है 

और सिमट-सी गई है

उनकी निर्मलता और पवित्रता 

दूषित हो गई है

प्रगति के पथ पर 

चढती नदियाँ

आज केवल

असहाय और लाचार है 

मानव के

अत्याचारों से त्रस्त है! 

● अनुपमा कट्टेल, दीमापुर (नागालैण्ड)