कहते हैं लोग, जहाँ
दो राहें मिलती है,
उसे दो राहा कहते हैं
और जहाँ चाह राहे मिलती हैं
उसे चौराहा कहते हैं ।
लेकिन मुसाफिर की
मंजिल है कहाँ,
उसे स्वयं ही पता नहीं,
कि उसे जाना कहाँ ,
सुनसान सड़क पर,
चौराहे पर खड़ा इंसान
सोचता किस दिशा की ओर चलूँ,
दाएँ या बाएँ ,आगे या पीछे,
लेकिन समझ न आता कि
उसकी मंजिल है कहाँ ,
कुछ ना सोचते हुए
कदम आगे बढ़ते गए,
कदम ने न दाएँ देखा न बाएँ
बढ़ता गया, बढ़ता
गया, लेकिन उसे
यह न मालूम कि आगे
जिंदगी सन्नाटा है,
एक खालीपन है।
एहसास ना कर पाया
और चलता गया,
पीछे मुड़कर देखने की
और हिम्मत न थी,
क्योंकि पीछे कुछ ऐसे लोग छूट
गए जो आगे खाई में ढकेलते गए।
और स्वयं खुशहाल की
जि़न्दगी काटते गए |
मुसाफिर किस हालत में है ,
न उन्हें कोई खबर
और न कोई परवाह।
एक परवाह बताती थी,हम तेरे हैं,
लेकिन मंजिल में साथ चलने
को क्या उन्हें कह गए,
हम आधे – अधूरे रह गए ,
और वे अपनी दुनिया में मस्तमौला,
बेखौफ आगे बढ़ते गए।
ऐ मंजिल तू लोगों को
ऐसी राह दिखा
जहाँ स्नेह हो , प्यार हो
और अपनापन हो।
क्योंकि हम सब इस जहाँ
के मुसाफिर ही तो हैं!
कब किसको किस
हालात में छोड़ जाए,
किसी को ना खबर और
न किसी को परवाह,
जिंदगी बहुत छोटी है
और मंजिल बहुत बड़ी है।
जिसे स्वयं को ही एक-एक कदम
रखते हुए आगे बढ़ना हैं।
इसी उम्मीद के साथ कि कहीं एक
अपनापन का रास्ता मिल जाए…..
आकांक्षा रूपा चचरा,कटक,ओडिशा