ग़ज़ल

रातरानी सी गमक बिखरा गए।

ज़ीस्त मेरी आप यूँ महका गए।

ज़ख़्म पर मरहम लगा सहला गए।

अब्र खुशियों वाले तुम बरसा गए।

जाँ वतन पर कर गए कुर्बान जो,

नाम का परचम वही लहरा गए।

गुफ़्तगू जब आपसे मेरी हुई,

उलझनें सारी मेरी सुलझा गए।

रौशनी अपनी बिखेरी आपने,

चाँद तारे भी सभी शरमा गए।

अब हवा चलने लगी है झूठ की,

गुल सदाक़त के सभी मुरझा गए।

जब ख़ुदा ने आपसे मिलवा दिया,

हम मुक़द्दर पर बहुत इतरा गए।

धड़कनों में कौन है अब आपकी,

आप दिल का राज़ खुद बतला गए।

रखना ख़ुद पर है यकीं इस ज़ीस्त में,

फ़लसफ़ा “अनु” को तुम्हीं समझा गए।

—अनीता सिंह “अनु”