इकट्ठा है कौरव जमात,
बिछी है शकुनी बिसात;
सामने हैं युधिष्ठर तात !
पा दुर्योधन का बल,
फलीभूत शकुनी छल;
हारा धर्मराज निर्बल !
सभा में अट्टहास दुर्योधन,
हो रहा द्रोपदी मान मर्दन ;
आम हो रहा चीर हरण!
सभा में बैठे हजार,
पांचाली का गुहार;
पांडव हैं लाचार !
अंध धृतराष्ट्र की सभा,
हैं बैठे धर्म के पुरोधा ;
भीष्म,द्रोण,कर्ण योद्धा !
सभी बैठे मूकदर्शक ,
नहीं अधर्म प्रतिकार ;
द्रोपदी करती चीत्कार !
कैसे हो अधर्म का निरोध,
समर्थ ही जब न करें विरोध ;
फिर किससे करें अनुरोध!
ऐसी ही देश की दशा,
अनाचार ने आ डसा ;
द्रोपदियों की दुर्दशा !
हैं दुर्योधनों का बोलबाला,
धर्मराज असमर्थ अकेला;
सत्य असहाय हो चला !
सरेआम लुटती द्रोपदी,
हैं दर्शक सब अंध,मूक ;
द्रोपदी बिलखती अटूट !
न आता कोई मददगार,
द्रोपदियाँ लुटती लाचार ;
न कोई धर्मी कृष्ण तैयार !
देखकर यह सब दृश्य,
मैं विचार शून्य हूँ …!
दो राहे पर खड़ा हूँ …!
कुछ समझ नहीं आता,
दुर्योधन के साथ रहूँ ..!
या धर्मराज का साथ दूँ…!
मान बहादुर सिंह ‘मान’✍️
डभौरा, ज़िला-रीवा (म.प्र.)