दर्पण झूठ न बोले

सुधा बुखार व बदन दर्द से बेहाल हुई जा रही थी। रात के नौ बज रहे थे और अभी तक उसका खाना नही बना था; जबकि उसके सास ससुर आठ बजे तक भोजन कर ही लेते है। सुधा ने घड़ी की तरफ देखा और हिम्मत जुटाकर किचन तक गई। ज़ैसे तैसे कुकर चढ़ाया। सब्जी काट ही रही थी कि टेलीफोन की घण्टी बजने लगी। सुधा ने फोन उठाकर कहा ‘हेलो…!’

 वहाँ से आवाज़ आई ‘हेलो  ..!  कैसी हो सुधा..! मम्मी पापा बता रहे थे कि तुम्हारी तबियत बहुत खराब है..? सुधा की ननद करुणा ने हालचाल पूछा। ‘हाँ दीदी! बुखार और बदनदर्द हैं।’ सुधा ने अनमनी सी होकर उत्तर दिया।

 ‘अब देखो न सुधा..! मैं, मम्मी पापा से इतना आग्रह कर रही हूँ कि खाने का समय हो गया हैं; यही खा लो। लेकिन कहते है घर जाकर ही खाएगें।’ करुणा ने माता पिता की ओर प्यार से देख लड़ियाते हुए कहा।

‘ओह्ह..! मुझें लगा आप उनसे ये कह रही होगी कि ये जानते हुए भी कि सुधा की तबियत बहुत खराब है तो बजाय रसोई के कामो में उसका सहयोग करने के आप लोग दोपहर से ही मेरे घर मे डेरा क्यो जमाए बैठे हो..?’  ये कहकर सुधा ने रिसीवर रख दिया।

✍🏻 जया विनय तागड़े