जन्नत का पहनावा

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

ध्रती दुल्हन भांति सजा कर आई फिर बसंत।

ख़ुशबू के अलंकार सुशोभित तेज़ हवाओं में।

सरस्वती के उत्त्सव चार चुफेरे राहों में।

वनस्पति के बीच नहा कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

अठखेलियों के मनमौजी दृश्य-दर्शन ले कर।

मौसम परिवर्तन वाले मीठे अर्वण ले कर।

निर्मलता का संतोष उठा कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

फसलों, फूलों के जोबन का बेपरवाह स्वागत।

कुदरत ने हस्ताक्षर करके लिख दी है ईबादत।

ध्ूप के साथ छांव नचा कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

गन्ने का रस, रेवड़ी, गच्चक, भुग्गा, मूंगफली।

खिचड़ी, साग, दहीं, मक्खन, घी मिश्री की डली।

ज़ायकेदार त्योहार बना कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

सांझ की वारिस, ट्टतुयों की रानी कहला कर।

अभिवादन करती फुलकारी का घुंघट उठा कर।

चंचलता भीतर शरमा कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

अम्बर में की है चित्राकारी डोर, पत्तंगों ने।

एक अलौकिक सुन्दर तोहफा दिया रंगों ने।

ख़ुशियों की उपमा अपना कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

मानवता की आशा, चरित्रा अंगीकार बने।

घर-घर में ही ‘बालम’ प्यार बने, सत्त्कार बने।

रंगों-र्ध्मों को समझा कर आई फिर बसंत।

जन्नत का पहनावा पा कर आई फिर बसंत।

बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर

ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध मोः 98156-25409