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अल्हड़ नदी सी
कभी रुकी कभी बढ़ी
कभी चट्टानों से झूझती
कभी तेज पवन के वेग से
बदल देती थी अपना रास्ता ।
कभी शोर मैं करती
कभी चित्कार उठती
कभी टीस हिय में ऐसी उठती
कभी भाव के जलने से
फफोले की जलन सहती रहती ।
क्यों नारी हृद की भावना से
सदा ही नर खेला करता
क्यों चित्कार कर्ण पटल को
व्यथित नहीं होने देता ।
निष्ठुर हो कर कैसे जग में
वो हँसता घूमा करता
क्यों हर क्षेत्र में नारी पर
अपना फैसला धोपा करता ।
गुहार लगाती तेरी बेटी
नारायण जागो पुकार सुनो
बंद करो यह सारे पाप
देगी नारी वरना शाप
हिय की पीड़ा बढ़ रही अब
छलनी छलनी हो ढ़ह रही अब।
टूटते घुटते रिसते घाव
बिखर रही है दर्द से नारी
पीड़ा मन की कितनी भारी
मत ऐसा होने दो कान्हा
वरना देगी सब ताना
पीड़ित हुई है जब-जब नारी
असंतुलित होई सृष्टि सारी
यह तेरी जननी है
कभी बहन कभी सजनी है
कभी सुता कभी सखी भाव रख
यह ही तुझको सिंचा करती
तेरे सारे जख्म हिय के
नारी ही तो है भरती
फिर भी कर्ज दूध का देखो
कभी नहीं तुम चुकता करते
माँ रूप में ममता देकर
यह तुझको सिंचा करती है
बहन रूप में तेरी खुशियों को
यह हरदम ही वरती है ।
पत्नि रूप अनोखा इसका
सदा समर्पण में रहती है
अपने सारे भाव मारकर
केवल वह सहती रहती है।
दम तोड़ती मरती नारी
अब वो सारे दुःख से हारी
लहू नयन से केवल बहते
सारी पीड़ा मन की कहते
निष्ठुर जाग दर्द यह उनके
कहीं प्रलय को न ले आए
आह उठी जो उनके हिय में
कोई तो अब उसे सहलाए
कर जोड़कर विनती करती
ठहरो रोके अपने मन को ।
कदम साथ में ले तुम देखो
सुंदर कर देती चित्तवन को।
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*व्यंजना आनंद ” मिथ्या “*
योग शिक्षिका
बेतिया ( बिहार )