दिखने और होने में फर्क

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657

एक दिन मेरी पत्नी पड़ोसन से बात कर रही थी। बातों-बातों में इधर-उधर की बातें उठीं। बातों की सुईं लड़कियों के साथ हो रहे अत्याचार पर आकर रुकी। दोनों ने अपने-अपने पक्ष रखे। महिलाओं की बातों में जितनी मिठास होती है उतना ही फेविक्विक भी होता है। बातों को जोड़ती हुई कहीं की कहीं पहुँच जाती हैं। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कभी-कभी गैस पर चढ़ा चावल का पतीला उनकी बातों के विलंब में अपनी शहादत की कहानी जल-भूनकर अपनी पेंदी की कालिख से देता है। शायद आज भी वही होने वाला था। मैंने पत्नी को आवाज दी। वह दौड़े-दौड़े आयी और गैस बंद किया।

मेरे पूछने से पहले ही वह बोल उठी – अजी सुनते हो! क्या इस बार आप लड़कियों पर हो रहे अत्याचार के बारे में लिखोगे? घर में रहना है तो पत्नी का कहा मानना भी जरूरी है। पहले तो मजबूरी में सिर हिलाया। किंतु थोड़ी देर बाद मैं खुद पर शर्मिंदा होने लगा। पारंपरिक तौर पर स्त्रियों को देवी बताते हुए वेदों-पुराणों में उनके महिमामंडन करने का आदी हो चुका मैं, आज पुनर्परिभाषित होने जा रहा था। पत्नी ने कहा – किसी को औरत की आँखें पसंद आती हैं तो किसी को बदन। किसी को होंठ पसंद आता है तो किसी को कुछ। कोई उसे आँखो से मापना शुरु कर देता है तो कोई बातों से ही उसका बलात्कार कर देता है। वह जानता है कि हमें यह सब पसंद नहीं। किंतु वह अपनी पसंद को जबरन हमारी पसंद बताने के लिए दुनियाभर की चालाकी दिखाता है। मानो उसकी सारी चालाकी की परीक्षा यहीं होने वाली है।

बर्तन घिस गए हैं। गिलास पुराने प़ड़ते जा रहे हैं। रसोईघर थकता जा रहा है। किंतु वहशियों की जिस्मानी इच्छाएँ, काम वांछनाएँ अडम स्मिथ की तरह अनंत हैं। ये न तो थमती हैं, न थकती हैं और न शर्माती हैं। बेहयाओं की बानगी सी हमारे पीछे पड़ी रहती हैं। उनके चेहरे के गंदे-गंदे हाव-भाव वाले संविधान में हमारे लिए यूज एंड थ्रो के काले कानून दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं। विरोध करने पर काल की गोद में फेंक रहे हैं। उनके अहंकार का परचम हमारे अबलापन की जमीन पर लहराने का प्रयास करता रहता है। फैसले देने वाले मुँह लड़खड़ा रहे हैं। कानून षड़यंत्र की वर्गपहेली में फंसकर रह गयी हैं। अब तक न्याय देवता आँखों पर पट्टी बाँधे रहती थी। अब वह कानों और मुँह पर पट्टी बाँधे नजर आती है। छोटे से घाव नासूर होने लगे हैं। हृदय में घृणा के तूफान उफनने लगे हैं। चूल्हे पर चढ़ी चाय और कॉफी विद्रोह करने के लिए कह रही हैं। नमक-मिर्ची अंधे कानूनों से दो-दो हाथ करने पर आमदा हो रहे हैं। अब रसोईघर रसोई से ऊब चुके हैं। अब वह विद्रोहघर बनने के लिए मचल रहे हैं। लड़की होकर लड़के जैसे दिखने की घड़ी बहुत जल्द आ रही है।

मैं पत्नी की बातों को शब्दों में बांधने के सिवाय और क्या कर सकता हूँ? बातें शब्दों की कथनी में नहीं करनी में बदलना चाहती हैं और वहशी अब भी उसे रसोईघर, आंगन, घर के कामकाज में व्यस्त देखना चाहते हैं। यदि वे बाहर आना भी चाहती हैं तो शोषक चंगुल खेतों, सड़कों और वहशी आँखों की पहुँच वाले स्थल तक उन्हें शोषित करने की पूरे फिराक़ में रहती हैं।