निगाहों से वो जो कहे जा रहे हैं।

निगाहों से हम वो सुने जा रहे हैं।

अजब ग़फलतों में जिये जा रहे हैं।

मुहब्बत के आंसू पिये जा रहे हैं।

सजाने से पहले है वीरान गुलशन,

गुलाबों  में कांटे  खिले जा रहे  हैं।

लगाई थी उम्मीद तुझसे भी हमने,

यही सोच कर हम घुले जा रहे हैं।

ना रातों को नींदें न दिन में सुकूंँ है,

तेरी  जुस्तुजू  में  लूटे  जा रहे  हैं।

किसी रोज तो वो भी समझेंगे हमको,

इसी आस पर हम जिये जा रहे हैं।

मेरे साथ हो कर भी है दूर मुझसे,

सितम हम ये कैसा सहे जा रहे हैं।

जो उल्फत ने दिल पर हमारे लगाया,

उसी ज़ख्म को हम सिये जा रहे हैं।

हमारे लिए जो कफस लेके आया,

उसी के  ही जानिब  बढ़े जा  रहे हैं।

“ज़रीन”आईनो को ये क्या हो गया है, 

रौशन  ये  चेहरे  बुझे  जा  रहे  हैं।

नज़र के मुक़ाबिल है मंज़िल वफा की,

“ज़रीन”अब मुसल्सल चले जा रहे हैं।

     ज़रीन सिद्दीक़ी(बिहार)