पूर्णिका

उछाल कर पत्थर सिर मांडता रहा वह।

दोष ओरो के सिर पर मड़ता रहा वह।।

न गया कभी स्कूल न की इंजनीयरिंग।

जिंदगी  भर  बंगले  बनाता  रहा वह।।

नही की खेती  नही  देखे  खेत  कभी।

आलू से सोना  बने  कहता  रहा वह।।

कथनी  करनी  में अंतर  रहा जिसके।

मुंगेरी  से   सपने   देखता  रहा  वह।।

नहीं पूरब का  नहीं  पश्चिम  का ज्ञान।

चढ़ाकर बाहें  ताल ठोकता रहा वह।।

दे दो,  दे दो,   मैं  जिंदगी  गुजारे  वो।

हर मंदिर  मसजीद  घूमता रहा वह।।

नही  शऊर  जिसको  घर में रहने का।

ख्वाब चांद तारों का देखता रहा वह।।

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कवि मनोहर सिंह चौहान मधुकर

जावरा जिला रतलाम मध्य प्रदेश