हे प्रिये! तू सुबह है या फिर ढलती हुई शाम,
मुझे इसका पता भी नहीं चलता।
तेरे आने का मुझे ख्याल तक नहीं है रहता।।
मैं तुझको इन बसंत के बीच जब-जब याद करता हूँ,
तब-तब मुझे खुद का ख्याल तक नहीं रहता।
हे प्रिये!दिन में भी अब मुझे चाँद नजर आता……….
छायी रहती है मुझमें एक अजीब सी बेचैनी,
यह उन्माद नहीं, व्यथित खुद की कहानी है।
उस नशा में भी तेरे आने तक का पता नहीं चलता।
तू यूँ ही मुझपर खुशियों की बरसता लुटाती रहना।।
हे प्रिये! मेरे जीवन में तू यूँ ही बसंत की तरह आना।
इच्छाओं की तृष्णा कभी नहीं है भरता।
तू दूर है इसलिए समय का ख्याल नहीं रहता।
तेरे आने की संवाद सुनते ही शाम भी ढल जाता।
ढ़लते किरण भी आँख झुकाकर शर्मा जाता।
हे प्रिये!पास आकर तू मुझे एक नई गीत सुनाना
———-समराज चौहान।
छात्र, दीफू परिसर, असम विश्वविद्यालय।
हावराघाट, दीफू, कार्बी आंग्लांग,असम।
दूरभाष :-6000059282