ये स्त्रियाँ 

———

ये स्त्रियाँ भी 

ना जाने कैसे होती है 

दिन रात झरती रहती है 

जिंदगी की आंख से 

नदी की तरह बहती रहती है

उलझी रहती है 

रस्मों के जंगल में 

ये स्त्रियाँ भी  

ना जाने कैसी होती हैं 

पूरा जीवन काट देती है 

खुशियों की यादों में 

असंख्य सेतुओं से पाट देती है

 अनंत खाइयों को 

अपना पूरा जीवन  

झोंक देती है घर में  

ये स्त्रियां भी 

ना जाने कैसी होती है 

याद कर-करके रोती रहती है

बिन मौसम की बारिशों को

तितलियां संजोती रहती है  

उम्र भर हथेलियों में 

वो बूंद बूंद पिघलती रहती है 

ये स्त्रियाँ भी  

ना जाने कैसी होती है

 कतरा कतरा जागती रहती है 

ढंग से सोती भी नहीं है 

टटोलती रहती है 

दरवाजे की कुण्डलियाँ

लगी रहती है 

घर को महफूज करने में 

ये स्त्रियाँ भी  

ना जाने कैसी होती है 

लिखती रहती है 

दिन भर का लेखा-जोखा  

रात -रात भर जागकर

हवा की तरह घूमती रहती है

कभी थकती नहीं 

ये स्त्रियाँ भी 

ना जाने कैसी होती हैं

●योगिता जोशी ‘अनुप्रिया’ 

जोटवाड़ा, जयपुर (राज.)