◆ डरी हुई है कविता
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तन-मन को छलनी कर
संस्कारों का ढोंग ओढ़ाकर
परम्परा के मानडंडों में
इस कदर रम जाते हैं कि
अबला की सिसकियों के स्वर
दुष्कर्म और हैवानियत का
नंगा नाच
प्रायः हम भूल ही जाते हैं
संवेदनाओं की मृत-भूमि पर
क्रूरताओं के पुजारी
करते हैं अट्टहास
आसमान छूते दाम
झूठे आश्वासन, भ्रष्टाचार
कर्ज़ के बोझ से खुदकुशी
करता किसान
शहर-गाँव, गली-गली
अभद्रता-अश्लीलता
साँसे तोड़ता ईमान
अमर्यादित भाषा-व्ययवहार
निर्दयताओं से टकराती
कविता डरी हुई है
चीत्कार करती कहती है
कवि की आत्मा-
मानव के अंतस का सूरज
कब उगलेगा आग
कुर्सी से चिपका धृतराष्ट्र
कब तक करता रहेगा
कुछ नहीं दिखने का नाटक
कब तक महसूस करेंगे गन्ध
जलती देहों की
अंतर्मन में सुलग रही आग
जला कर राख करदे
क्रूरताओं के इन पुजारियों को
जो खुद इंसान होकर
इंसानियत को नौच रहे हैं
समय के लौटने की चाह में
डरी हुई कविता
कर रही चीत्कार
आत्मा का शिलालेख
कुटिलता के विष से
रक्त रंजित हो गया है
इससे पहले कि सुख-शांति की
सभी दिशाएं ओझल हो जाये
शापित हो जाये जिंदगियाँ
मानवता के भाल पर
उग आए इन
कैक्टसों को रौंद दो
मानवता फिर गुनगुनाये
कविता भी मुस्कराए!
◆ राजकुमार जैन राजन
प्रधान संपादक: ‘सृजन महोत्सव’ त्रैमासिक
आकोला -312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान
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