क्यो सोचूं

किस किस को बताऊँ

कैसे कैसे बताऊँ

कि मुझे फर्क नहीं पड़ता

इस बात से

कि लोग क्या कहेंगे

अगर फर्क पड़ता तो

फैसलों की कड़ी इतनी

मजबूत न होती,

मैं जमाने के सामने

यूँ खड़ी न होती

क्यों सोचूँ उनके बारे में

जो किसी को बुलन्दी पर

खड़ा देख गिराने की सोचते है।

मार्ग में रोड़े अटकाने की

हर कोशिश करते है

क्यों सोचूँ उनके बारे में

जो देख अकेली औरत करते

तरह तरह की बातें

जानना चाहते है कैसे

कटती है उसकी रातें

जब समझ नही कुछ आता है

तो कर जाते है व्यभिचार

नोंच खाते है और करते हैं

बलात्कार क्या सोचूँ

उनके बारे में जो नही

स्वीकार कर पाते मेरा

स्वतन्त्र उड़ना,स्वच्छन्द घूमना

बेबाक बातें कहना,

अपने दम पर जिन्दगी जीना।

क्यों सोचूँ उनके बारे में

जिनको मेरे होने न होने से 

फर्क नहीं पड़ता

जो मेरे दुख में न रोते है न

सुख में हँसते है

बस बातें बनाते हैं

मोड देना चाहती हूँ मैं उन

दकियानूसी परम्पराओं को

तोड़ देना चाहती हूँ

उन बेड़ियों को

जो जकड़ती है

नई धाराओं को,

नई सोच को बस करना

चाहती हूँ मन की

उड़ना चाहती हूँ

अनन्त छोर तक

बिना ये सोचें कि

लोग क्या कहेंगे

क्योंकि लोगों का तो

काम ही कुछ न कुछ कहना।

अरुणा कुमारी राजपूत ‘राज’

हापुड़-उ०प्र०