आत्म चिंतन

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जब किया आत्म चिंतन मैंने खुद को पाया अज्ञानी, 

जो भी मेरे सम्मुख आया माना उसको गुरु ज्ञानी।

 जो भाव दिखा उसके मन का शब्दों को दे दी घानी, 

जो सीख सकी वह सीख लिया मेरा रंग जैसे है पानी।

 कहीं मिली ज्ञान की गंग से में भरपेट पिया मैंने पानी, 

हुई तृप्त ज्ञान की गंग में में मेरा रंग जैसे है पानी।

 जल का स्वभाव समृद्ध, सरल सब में मिल रहने की ठानी,

 कभी नदिया सी बहती कल कल कभी झरने सा बहता पानी।

 निर्भीक सदा सच साथ रहूं ईमान संग तोल मोल बोलूं वाणी,

 निज कर्म करूं सघन कर्मठता से कर्म पथ पर मेरा नहीं दूजा सानी।

 कोई काम नहीं ऐसा मेरे सम्मुख जिसे देख बनूं मैं नादानी,

 मन में संकल्प हो करने का फिर सतत प्रयास करने की ठानी।

 मन में है विश्वास बड़ा जब दुख दुविधा सम्मुख है आनी,

 पर्वत सा कर विचार बड़ा सुदृढ़ जिसने कभी हार नहीं मानी।

 जग में असंभव नहीं कुछ भी जिसे छोड़े ‘अलका’ सा प्राणी, 

सम्मुख आया वह कर डाला रही सदा कर्म पथ दीवानी।

 जब किया आत्म चिंतन मैंने खुद को पाया अज्ञानी,

 जो भी मेरे सम्मुख आया माना उसको गुरु ज्ञानी।

अलका गुप्ता ‘प्रियदर्शिनी’

लखनऊ उत्तर प्रदेश।

स्व रचित मौलिक व अप्रकाशित