पूर्व महाधिवक्ता आनंद मोहन माथुर ने डेढ़ साल में लिख डाली 8 किताबें –

इन्दौर । उम्र की 95वीं पायदान पर पहुंचे पूर्व महाधिवक्ता आनंद मोहन माथुर अब भले ही ठीक सेचल और बोल नहीं पाते हों लेकिन उम्र वाली बीमारियों के असर से उनकी वैचारिक सोच पूरी तरह आजाद है। 92 की उम्र में किताबें लिखना शुरु की और उस कोरोना काल में आठ किताबें गांधी नामा, क्रांति कथा, नेहरूनामा, अकबर, शिवाजी, हल्दीघाटी, अंबेडकर और सुभाष चंद्र बोस। इनमें से गांधी नामा और क्रांति कथा का लोकार्पण भी हो गया है।
करीब एक साल पहले उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी। आंतों से निरंतर रक्त स्राव होने के साथ ही हिमोग्लोबिन घटकर 4.3 रह गया था। बेहतर देखभाल और बेटी-दामाद (डॉ. पूनम-राजकुमार माथुर) के अनुरोधपर वे स्कीम नंबर 140 स्थित उनके निवास पर रह रहे हैं, हालत अब पहले से बेहतर है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति रहे गोवर्धन लाल ओझा के जूनियर के रूप में वकालत की शुरुआत करने वाले माथुर को विधि क्षेत्र का ही करीब 64 वर्ष का अनुभव है। उनसे जब पूछा कि वैसे तो आप को विधि क्षेत्र के अनुभवों, ऐतिहासिक किस्सों आदि पर किताब पहले लिखना चाहिए थी। उनका कहना था अब विधि क्षेत्र पर भी लिखूंगा। पहले लिख भी लेता तो उन किताबों के पाठकों का दायरा विधि क्षेत्र से जुड़े वर्ग तक ही रहता। हिंदुस्तान के अवाम कोभारतीय इतिहास और आजादी के लिए प्राणों का बलिदान करने वाले ज्ञात-अज्ञात क्रांतिकारियों की जानकारी मिल सकें, इस उद्देश्य से पहले ऐसे सारे विषयों पर लिखना शुरु किया। मुझे सुकून है कि हेमंत शर्मा (प्रजातंत्र) ने मेरी इस भावना का सम्मान किया और मेरा लिखा सिलसिलेवार प्रकाशित भी किया। ये आठ किताबें उसी सोच का परिणाम है।
उम्र के 94 साल गुजार चुके माथुर से जब जिंदगी का फलसफा पूछा तो उनका कहना था जिंदगी सेवा, त्याग, बलिदान की और लोगों के काम आने वाली हो तो वह थोड़ी भी बहुत अच्छी। अमर शहीद भगत सिंह हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गए। कम उम्र में देश के लिए किए उनके बलिदान से उनकी जिंदगी लंबी और महान हो गई है। मुझे ज्यादा नहीं तो थोड़ा ही यह सुकून तो है ही कि शहर की तंग बस्तियों के लोगों के लिए, गरीब-मजलूमों को उनका हक दिलाने के लिए कुछ तो काम किया। मैंने अकेले ही उनके लिए न्यायालय में केस लड़े और जब उन्हें तथा शहर हित के निर्णयों के पक्ष में कोर्ट ने फैसले सुनाए, उम्र के इस पड़ाव पर यह सुकून भी है कि अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है।
‘क्रांति कथा’ में उन क्रांतिकारियों पर लिखा जिनके विषय में लोग कम जानते हैं। दुर्भाग्य तो यह भी कि शहीदोंके बलिदान पर जिंदाबाद करने वालों ने भी शहीदों के परिवार की परेशानियों से नजरें फेर ली।
:: आदिवासी का राष्ट्रपति बनना ही पर्याप्त नहीं, जल, जंगल, जमीन का अधिकार भी मिले ::
पूर्व महाधिवक्ता माथुर ने कहा आदिवासी समाज की द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाए जाने का स्वागत है लेकिन इससे आदिवासियों का भला नहीं होगा। आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन के अधिकार सौंपने के लिए राज्य शासन के विरुद्ध उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर चुके माथुर का कहना है, आदिवासियों को अभी अधिकार नहीं है कि उनके क्षेत्र में ब्रिज, सड़क कहां बनेगी का निर्णय वो ले सकें, पंचायतों में इनको फैसले का अधिकार नहीं, कर लगाने का अधिकार नहीं। मेरी पिटिशन पर जारी नोटिस में सरकार ने गोलमोल जवाब दिया है। जबकि आदिवासियों के हित वाले कानून में संशोधन होना चाहिए।
:: ‘क्रांतिगाथा’ में हैं गुमनाम क्रांतिकारियों के किस्से ::
हिंदुस्तान की क्रांति विदेशियों के खिलाफ 1857 के करीब शुरू हुई, जिसे हम क्रांति कहते है और अंग्रेज जिसे ग़दर कहते हैं।
अभी तक जितना साहित्य उपलब्ध है, उनमें शहीद ए आज़म सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्ला, राजगुरु, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल इनके सम्बंध में ही जानकारी मिलती है और वोभी थोड़ी-थोड़ी लेकिन कोई यह नही जानता कि पंजाब में राधेश्याम कथावाचक, मदनलाल ढींगरा, भगवतीचरण वोहरा, अरविंद घोष, रासबिहारी बोस, पृथ्वी सिंह ये सभी क्रांतिकारी हिंदुस्तान की आजादी के लिए फाँसी चढ़ गए। सबसे उज्ज्वल चरित्र भगवती चरण वोहरा का था। भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा भाभीउन शहीद महिलाओं में थी, जिसने अंग्रेजो से बदला लिया।
क्रांतिकारी भाई मुंशी सिंह लाहौर में रहते थे और अंग्रेजो के खिलाफ बगावत करने के लिए ईरान जाते और वहाँसे वापस आ जाते, कई साल वो नही पकड़े गए लेकिन फिर आखरी बार वो पकड़े गए और उन्हें सुबह 7 बजे सिर के बीचों बीच गोली मारने का आदेश दिया गया, उनकी यात्रा धूमधाम से निकली और ईरान में उनकीमजार आज भी बनी है और हजारों ईरानी अपनी श्रद्धांजलि देने जाते हैं। मैंने तो कुछ का ही जिक्र किया है, सैकड़ों भारतीय शहीद हो गए ये सारे वो नाम हैं जिनको देश को आज भी याद करना चाहिए, इनके परिवार कोसुविधाएं एवं सम्मान देना चाहिए, इस किताब को लिखने का उद्देश्य यही था।
:: ‘गाँधीनामा’ उनकी पोती तारा को भिजवाई ::
गांधी जिसने अपना पूरा जीवन दक्षिण अफ्रीका में ही नही भारत के 75 वर्षों में देश का एक एक गांव, एक एक शहर वो गए है और अहिंसा, शांति इसको फैलाने का काम किया है। इन बीते वर्षों में देश मे सैकड़ों गांधीवादी संस्थाऍं खड़ी हुई, पनपी लेकिन उन संस्थाओं में अब दीमक लगने लगी है और गांधी पर प्रश्न चिन्ह लगाए जाने लगे है। जिस गांधी को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना नेता माना और ब्रिटेन, अमेरिका में हज़ारों गांधी की मूर्तियां स्थापित हुई। जिस नेता ने भी अपने देश को आज़ाद करवाने में अग्रिम भाग अदा किया, उसे गांधी के नाम से पुकारा जाने लगा। दक्षिण अफ्रीकन गांधी, अमेरिकन गांधी लेकिन पिछले डेढ़ दशक में देश की हिन्दू मुस्लिम एकता को बड़ा आघात लगा है, जो ज़ख्म 15 अगस्त 1947 को भर गए थे, वो जख्म फिर से हरे हो गए और देश में चारों तरफ धार्मिक उन्माद पैदा हुआ। साम्प्रदायिक सद्भाव की कमी आने लगी है और दंगे भड़क रहे है तब ये उचित है कि गांधी उनके व्यक्तित्व, उनका परिवार, उनका जीवन इन सब पर नए सिरे से मूल्यांकन होना चाहिए। बस यही एक उद्देश्य से मैंने इस किताब को लिखना प्रारम्भ किया। इसकी एक प्रति गांधीजी की पोती तारा गांधी को भी भिजवाई है, जिसे उन्होंने सामयिक माना।