उचकन

दादी ने बुझे चूल्हे से

कोयले का एक छोटा टुकड़ा निकाला,

और मेरी तरफ सरका दिया ।

‘लगा ले इस उचकन को, थाली के नीचे

जिधर रखी है रोटी ,

रसेदार सब्जी का रस ,

अब रोटी को गीला नहीं करेगा ।‘

ऐसे ही नामकरण किया -उचकन का – मेरी दादी ने।

पीढ़े पर बैठी मैं , सामने खाने की थाली ।

थाली के नीचे कोयले का उचकन लगा कर

मैंने चैन की सांस ली।

तरल का ठोस से ,

मिलन ना होने का जुगाड़ बनाया ।

पर फिर स्वाद तो दोनों के विलय मे ही था ।

अलग होकर भी दोनों एक दूसरे के पूरक थे ।

अन्योन्यश्राय संबंध था ही कुछ ऐसा ।

फिर क्यों यह उचकन ?

उसने उचकन उठाया , थाली को समतल बनाया ।

तरल और ठोस , दोनों एक दूसरे मे विलीन।

नया स्वाद – सुस्वाद का संकेत था यह ।

भीड़ भरी ,  भागती जिंदगी हमारी

जिसमे लगा है समय का उचकन, होड़ की उचकन ;

नीरस संबंधों का उचकन ,

और स्वयं को तलाशता अपना ही मन ।

ज़िदगी के उचकनों को निकाल दें ,यही कामना है हमारी ।

जीवन हमारा सुस्वादु बने , यही प्रार्थना है हमारी ।

सीमा वर्मा

एच पी सी एल कॉलोनी

विशाखापटनम – 530003

आंध्र प्रदेश