(नो रोडरेज, नो हिट एंड ट्रायल: प्लांड मर्डर केस)
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आखिरकार, वही हुआ जिसका डर था !देश की धड़कन और दिलवालों की दिल्ली एक बार फिर दागदार हुई.नए साल की नई सुबह हैवानियत की पराकाष्ठा देखते ही बनी. मानो रूह कांप जाएं कि हम सभ्य समाज में जी रहें हैं या फिर सेक्स -कम्युनिज्म के फेज में? मानिए या न मानिए जनाब! यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता वाले मुल्क में आधी -आबादी (बालिका- महिलाओं) के विरुद्ध एक युद्ध -सा छिड़ा़ है, कुचलने, रगड़ने, रौंदने, हत्या, बलात्कार, एसिड एटैक, धरेलू दुव्यर्वहार,एवं कामकाजी महिलाओं के साथ कार्यालय में दोहरी संवाद की फजीहत एक कामन फिनोमेना बनती जा रही है. आखिर क्यों? निर्भया, श्रद्धा व अंजलि और न जाने कितने झूठे व दिखावटी प्यार के जंजाल में फंसकर या गंदी पुरुष मानसिकता के दरिंदगी के शिकार बन अपनी जिंदगी को गंवा चुकी हैं. दरअसल, समाज में महिलाओं के प्रति आज भी पुरुष की मानसिकता कमोबेश सेक्सुअल फैंटेसी और उपभोग की वस्तु वाली बनी है, कहीं वेस्टेड इंटरेस्ट वश कम्प्रोमाइज़ की कहानी तो कहीं जबरन मोलेस्टेशन का मामला सुर्खियों में. एडोलेंस की लड़कियों और लड़कों में ब्वायफ्रेंड और गर्लफ्रेंड का बढ़ता क्रेज लाईफ को क्रश कर रहा है. इस पर सावधानी और सतर्कता बेहद जरुरी है. और यह तब ही संभव है जब बच्चों एवं वयस्कों के सोशलाईजेशन की प्रक्रिया सही ढंग से स्थापित हो. लाख वयस्तता के बावजूद पैरेंट्स और बच्चों के बीच सिर्फ गुडमॉर्निंग और गुड नाईट का संबंध न हो, जो अमूमन इस ग्लोबलाईजेशन और आर्थिक उदारीकरण के दौर में कमोबेश अधिकांश परिवार में दिख रहा है.इसके लिए सरकार और निजी संस्थानों को अपने यहाँ समाजशास्त्र एवं मनोविज्ञान ज्ञाता को रखने की जरूरत है ताकि समय -समय पर वह ओरिऐंटेशन प्रोग्राम के द्वारा लोगों को प्रशिक्षित कर मन के अंदर मोबाईल, इंटरनेट,पोर्न मूवी से पनपते व्यसन को दूर कर सकें. यकीन मानिए इससे आधी -आबादी के प्रति सुरसा मुहं की तरह बढ़ती अपराध पर अंकुश लगेगा और समाज हमलावर होने से बचेगा.
दिल्ली के अंजलि प्रकरण में साफ है कि सहेली पहेली बन रही है और पुलिस ला विल टेक इट्स आन कोर्स का फंडाबाज. आरोपी तो नपेंगे, तय है क्योंकि कानून के हाथ लंबे होते हैं,लेकिन बतौर लेखक और समाजशास्त्र अध्येता समस्या के जन्म और पनपने पर प्रहार जरूरी है.
मानसिकता और विचारधारा में बदलाव समय की मांग है.और इसके लिए हैशटैग, कैंडल – मार्च , से ज्यादा जरूरी सामाजिक जागरूकता और संवेदनशीलता को स्थापित करने की है.
प्रेषक-
डॉ. हर्ष वर्द्धन
लेखक
पटना बिहार
9334533586.