न बांधो जिम्मेदारियों से, अभी थोड़ा और मुस्कराना चाहता हूं ,
पंछी सा उड़ जाऊं दूर गगन में,थोड़ा और चहचाहना चाहता हूं !!
है हरा-भरा घर आंगन कि मिल गया सब कुछ बिना मांगे मुझे ,
मगर खुद की भी मेहनत से मैं,मकान अपना बनाना चाहता हूं !!
हार की रुसवाईयों से गिरकर भी,संभलना सीख लिया है अब ,
कि डूबते सूरज से भी मैं, इक मुकम्मल दीप जलाना चाहता हूं !!
कहो, नफरतों के इस दौर में कैसे मैं एक वाजिब ग़ज़ल कह दूं ,
कि लिख दो तुम ‘एक पाती इश्क़ की’, मैं कहकहाना चाहता हूं !!
न जानें कब से रस्ता देख रहीं हैं ये आंखें तुम्हारे लौट आने का ,
मिलो तो..बड़े अदब से इस तड़प को गले लगाना चाहता हूं !!
“मनसी”, ये तस्वीर इस दुनिया की अभी-आधी-अधूरी सी लगे ,
लौटा दो वक्त वो पहला, कुछ रंग इंसानियत के संवारना चाहता हूं !!
नमिता गुप्ता “मनसी”
मेरठ, उत्तर प्रदेश