दिल्ली ! देखती नहीं है
उसे कुछ दिखता नहीं
शायद! वह देखना भी नहीं चाहती ?
जेठ में भी कोहासा घना है
क्योंकि
हस्तिनापुर ने भी नहीं देखा
द्रौपदी का वस्त्रहरण ?
शायद
धृतराष्ट्र अंधा था !
लेकिन, जिन्हें आँखें थीं वह भी अंधे थे ?
क्योंकि
उन्हें राजदण्ड का भय रहा ?
फिर
साक्षी, निर्भया का आर्तनाद कौन सुनेगा?
सब्जी की तरह वह कट रहीं थीं
सड़क से अंधे-बहरे-गूंगे गुजर रहे थे
शायद
इंसानियत मर चुकी है
अब आँखों वाले अंधे हैं !
इसीलिए
दिल्ली को
कुछ नहीं दिखता
दिल्ली बस! साधती है मतलब
बाकि वह कब की अंधी है ?
!! समाप्त!!
प्रभुनाथ शुक्ल
(बरिष्ठ पत्रकार, लेखक और समीक्षक)
जिला : भदोही, (उप्र)