जेठ दुपहरी

काली घटाएँ घहरा रही है,

श्वेत  श्याम  है  आसमां।

स्मृतियों की सूनी कटिली,

चुभ    रही   है   झाड़ियां।।

शुष्क सूने पथ भटकते,

कंकरीले    गाँव    पर।

यूँ अचानक जा के बैठा,

मन उसी एक ठांव पर।।

खिल  रही  थी  हरीतिमा,

महकी  वहाँ  सुगंध  थी।

खेजड़ी  सी  कंटकीली, 

बनी विरानियाँ पंथ की।।

एक विषद अग्नि ने घेरा,

जल उठी स्वर्गिक लता।

आज भी लिपटी है अपने,

प्रियतम से बनकर ख़ता।।

खो गई स्वर्णिम सी आभा,

तन भी जलता ये राख सा।

सूने  में  फिर  मिल रहा है,

मन  से  मन का  साथ पा।।

घिर रही नभ में तमस सी,

घट  छा  रहे  घनघोर भी।

क्यूँ  ये अग्नि जल रही है,

दर्द   बन  कर   पोर  सी।।

पथ भटक कर आ सका ना,

कोई  राही  इस  राह  पर।

बैक   सूने   में   सिसकती,

आसंदी  इस   आस   पर।।

गुजरे  गहन  सावन  सभी,

सुंदर  सघन  से  प्यार  में।

छांव  ठांव  सँग  में जलते 

जेठ  दुपहरी  के  म्यार में।।

डाॅ• निशा पारीक जयपुर राजस्थान