पूर्व चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने रिटायरमेंट के बाद कई मुद्दों पर रखे विचार
नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ रविवार को अपने पद से रिटायर हो गए। उनकी जगह आज यानी सोमवार को न्यायमूर्ति संजीव खन्ना सीजेआई पद की शपथ ली। रिटायरमेंट के बाद जस्टिस चंद्रचूड़ ने कई मुद्दों पर अपनी राय रखी। अपने आखिरी साक्षात्कार में उन्होंने नफरत फैलाने वाले भाषण, आरक्षण, कार्यपालिका-न्यायपालिका संबंधों और जजों के वेतन जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने विचार रखे। उन्होंने एक बात और कही कि मुझे लगता है कि मैंने व्यवस्था को पहले से बेहतर स्थिति में छोड़कर जा रहा हूं, जहां वह पहले था।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने आठ साल से ज्यादा समय तक सुप्रीम कोर्ट के जज और पिछले दो साल तक चीफ जस्टिस के रूप में अपनी सेवाएं दीं। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्हें लगता है कि उन्होंने व्यवस्था को उससे बेहतर बनाया है जितना उन्हें मिला था। उन्होंने दिव्यांग अधिकारों, सूचना के अधिकार, आर्थिक संघवाद और लिंग और जातिगत भेदभाव के संदर्भ में समान अवसर के सिद्धांत पर दिए गए अपने फैसलों का जिक्र किया। उन्होंने यह भी कहा कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के साथ नफरत फैलाने वाले भाषणों का असर कई गुना बढ़ गया है और ये लोगों के मन और भावनाओं पर गहरा असर डाल रहे हैं।
इस सवाल का जवाब में चंद्रचूड़ ने कहा कि लोकतंत्र के कोई समान घटक नहीं हैं जिन्हें हर देश को यह तय करने के लिए पूरा करना चाहिए कि वह लोकतांत्रिक रूप से काम कर रहा है। भारत में लोकतांत्रिक कामकाज का आधार, जहां हम अपनी अनूठी समस्याओं का सामना कर रहे हैं, अन्य देशों में लोकतंत्र के आधार से अलग है। उन्होंने आगे कहा कि भारत में हम लोकतंत्र की केवल राजनीतिक समझ को नहीं मानते हैं। चुनाव या प्रतिनिधित्व से संबंधित मुद्दे जैसे मतदान का अधिकार या सीमा निर्धारण, लोकतांत्रिक शासन का हिस्सा हैं।
हम सामाजिक लोकतंत्र में यकीन रखते हैं, अर्थात कुछ न्यूनतम सामाजिक कारकों का अस्तित्व जैसे भेदभाव का अभाव और अवसर की वास्तविक समानता तय करना। लोकतंत्र में संस्थाओं की क्या भूमिका है? संस्थाओं का निर्माण किया जाता है और उन्हें यह तय करने के लिए शक्ति प्रदान की जाती है कि लोकतंत्र के आधारों का उल्लंघन न हो और लोकतांत्रिक नींव जिन मूल्यों पर टिकी होती है, उन्हें बढ़ावा मिले।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि मैं बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रबल विश्वासी और समर्थक हूं। संवैधानिक स्वतंत्रता उचित प्रतिबंधों के अधीन है। मेरा मानना है कि प्रतिबंधों से अधिकार को केवल कागजी अधिकार नहीं रह जाना चाहिए। नफरत फैलाने वाला भाषण चिंता का विषय है। सोशल मीडिया के उदय के साथ इसका प्रभाव अब कई गुना बढ़ गया है।
कीबोर्ड योद्धाओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो सिर्फ ध्यान आकर्षित करने और सार्वजनिक रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए बातें करते हैं। आहत करने वाली टिप्पणियों का लोगों के मानस और भावनात्मक स्वास्थ्य पर दूरगामी असर होता हैं। भारत को इसे रोकने के लिए क्या करना चाहिए इस पर उन्होंने कहा कि राज्य की अपनाई गई विधि को प्रतिबंधों के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए। इसका असर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करने वाला नहीं होना चाहिए।